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________________ व्याख्यान ५२ : : ४६७ नहीं होता? इस पर उन रानियोंने अपना एक कंकण बतलाया जिसको देखने से चारित्रावरण कर्म के बंधन के टूट जाने से नमिराजा को ऐसा अध्यवसाय उदय हुआ कि बलयावलिदृष्टान्ताजीवो बहुपरिग्रही । दुःखं वेदयते नूनं, वरमेकाकिता ततः ॥१॥ भावार्थ:--कंकणसमूह के दृष्टान्त से यह सिद्ध होता है कि-अनेकों परिग्रह को धारण करनेवाला जीव निश्चयरूप से दुःख का ही अनुभव करता है, अतः अकेला रहना ही श्रेष्ठ है। इस प्रकार ऐकाकी विचरने का ध्यान करता हुआ राजा निद्रावश हो गया। स्वप्न में अपने को मेरु पर्वत पर रहते हुए तथा श्वेत हाथी पर बैठे हुए देखा । स्वप्न से जागृत होने पर ऐसा स्वर्ण पर्वत मैंने पहेले कहां देखा है इस प्रकार उहापोह करते हुए उस राजा को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया और उसने अपना पूर्व भव देखा। उस पूर्व भव में अनगिनत पुण्यवाला चारित्र पालन करने से वह अनुपम लक्ष्मीवंत पुष्पोत्तर विमान में देवता हुआ था। उस समय जिनेश्वर के जन्मकल्याणक के लिये वहां आने से उसने उस स्वर्णमय मेरुपर्वत को देखा था । इस प्रकार जातिस्मरण ज्ञान होने से उसकी चारित्र ग्रहण करने की उत्कट इच्छा उत्पन्न हुई, अतः देवताओंने उसे उसी समय
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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