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________________ ': ४३४ : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : सुधर्मराजा की कथा पांचाल देश का सुधर्म नामक राजा जैनधर्म में दृढ़ था। एक बार इतने आकर उससे कहा कि-हे देव ! महाबल नामक चोर लोगों को अत्यन्त कष्ट पहुंचाता है । इस पर राजाने उत्तर दिया कि-मैं स्वयं वहां जाकर इसका निग्रह करुंगा, क्यों कितावद्गर्जन्ति मातंगा, वने मदभरालसाः । शिरोविलग्नलाङ्लो, यावन्नायाति केसरी ॥१॥ भावार्थ:-मद में मस्त हुए हाथी वन में तभी तक गर्जन करता हैं जब तक कि-पूछ को मस्तक पर झूलाते हुए केसरीसिंह नहीं आता। ऐसा कह कर सैन्य भार से. पृथ्वीतल को नमाते हुए सुधर्म राजा उस चोर का निग्रह करने को गया। क्रीड़ा मात्र से ही चोर का पराभव कर राजा वापस अपने नगर को लौटा तो नगर में प्रवेश करते ही नगर का मुख्य द्वार एकाएक गिर पड़ा । इसे अपशुकन समझ राजा वापस मुड़ गया और ग्राम के बाहर ही पड़ाव किया। मंत्रियोंने शीघ्रतया नया द्वार बनवाया परन्तु वह भी प्रवेशसमय टूट गया। फिर एक ओर द्वार बनवाया गया किन्तु वह भी टूट गया। यह देख कर राजाने मंत्रियों से कहा कि यह
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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