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व्याख्यान ४९ :
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जो कोशा वेश्या के सदृश स्वधर्म के रागी पुरुष राजाज्ञा होने पर भी स्वधर्म का त्याग न कर अन्य जनों को अपनी बुद्धि से प्रतिबोध करते हैं उन्हीं को सच्चे मुक्ति-: मार्ग के मुसाफिर जानना चाहिये ।
इत्युपदेशप्रासादे चतुर्थस्तंभ अष्टचत्वारिंशत्तमं व्याख्यानम् ॥ ४८ ॥
व्याख्यान ४९ वां दूसरा गणाभियोग आगार
समुदायो जनानां हि, स एवोक्तो जिनैर्गणः । क्रियते तस्य वाक्येन, निषिद्धमपि सेवनम् ॥१॥ गणाभियोग आगारो, द्वितीयोऽयं निगद्यते । केचिदुत्सर्गपक्षस्था, नैवं मुञ्चत्यभिग्रहम् ॥२॥
भावार्थ:- मनुष्यों के समुदाय को जिनेश्वरने गण कहा है । उस गण के वाक्य से निषिद्ध कार्य करने को दूसरा गणाभियोग आगार कहते हैं । उत्सर्ग पक्ष में दृढ़ कई ऐसे भी प्राणी हैं कि जो गणाभियोग से भी अपने अभिग्रह को नहीं छोड़ते। इसके दृष्टान्तस्वरूप सुधर्म राजा की कथा कही जाती है ।
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