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________________ अर्थ-हे भाई! प्रातःकाल में (इस संसार में) चेतन अथवा अचेतन पदार्थ के जो स्वतः सुन्दर भाव, अत्यन्त रुचि को उत्पन्न करने वाले और लोगों के मन को प्रमोद देने वाले हैं, वे ही भाव परिपाक दशा को प्राप्त कर उसी दिन विरस होकर नष्ट हो जाते हैं, फिर भी आश्चर्य है कि प्रेत से नष्ट हुआ मेरा मन संसार-प्रेम के अनुबन्ध को नहीं छोड़ता है ।। ११ ।। विवेचन सुबह खिले ! शाम को मुरझाये !! ___ अरे भाई ! जरा रुक जायो। संसार के इन नश्वर पदार्थों में इतने आसक्त मत बनो। इन पदार्थों के वास्तविक स्वरूप का जरा चिन्तन करो। सुबह खिले हुए गुलाब के फूल को देखकर उसके सौन्दर्य में तुम मुग्ध बन जाते हो। किन्तु यह बात क्यों भूल जाते हो कि शाम होते ही इस गुलाब का सौन्दर्य समाप्त हो जाएगा। तुम नवीन वस्त्रों को देखकर इतने मोहित बन रहे हो, किन्तु जरा विचार तो करो, इनकी शोभा कब तक? कुछ ही दिनों के बाद ये ही वस्त्र तुम्हारे लिए अप्रीति का कारण बन जायेंगे। प्रोह ! जिस डिजाइन वाले वस्त्र को लाने के लिए तुमने अपने माता-पिता से झगड़ा किया, जिस वस्त्र की सिलाई के लिए तुमने मुंहमांगे रुपये दिये, जिस फैन्सी वस्त्र को पहनकर तुमने अपने शारीरिक सौन्दर्य को बढ़ाया; किन्तु कुछ ही दिनों के बाद कोई नई डिजाइन आ गई और अब तुम्हें उस नवीन डिजाइन वाले वस्त्र को पाने की लालसा हुई। नवीन उसके सोलन करो। सुबह इन पदार्थों इन नश्व शान्त सुधारस विवेचन-२१
SR No.022305
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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