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________________ और ये इन्द्रियाँ ! संध्या के आकाशीय रंग की तरह कितनी चपल और चंचल हैं। प्रति समय प्रत्येक इन्द्रिय अपने-अपने विषय को पाने के लिए घूमती ही रहती है। इष्ट विषय के मिलते ही उसमें आसक्त बन जाती है और प्रतिकूल विषय मिलते ही वह निराश बन जाती है। संध्या के समय आकाश में विविध रंग छा जाते हैं ; किन्तु उनका अस्तित्व कब तक? थोड़ी ही देर में वह रंग समाप्त हो जाता है। उसी प्रकार प्रत्येक इन्द्रिय के प्रत्येक विषय भी अत्यन्त ही चपल हैं। इस संसार में मित्र-स्वजन और स्त्री के सम्बन्ध भी स्वप्नवत् नाशवन्त हैं। कई बार स्वप्न में अपनी विविध प्रकार की अवस्थाओं को देखते हैं। कई बार राजा बन जाते हैं तो कई बार सेठ-साहूकार। परन्तु आँख खुलते ही सब गायब । बस ! यही हालत है संसार के सम्बन्धों की। आँख बन्द होते ही (श्वास निकलते ही) सभी सम्बन्ध समाप्त हो जाते हैं। जीवनभर सैकड़ों व्यक्तियों से सम्बन्ध जोड़े किन्तु एक मृत्यु, कैंची बनकर उन समस्त सम्बन्धों को काट देती है। प्राण निकल जाने के बाद कौन सा सम्बन्ध साथ रहता है ? __ ओह ! इस संसार में ऐसी एक भी वस्तु नहीं है, जो आत्मा के उत्थान के लिए आलम्बनभूत बन सके ? फिर भी आश्चर्य है कि इसी संसार में लीन रहने की वृत्ति-प्रवृत्ति क्यों बनी रहती है ? D प्राततिरिहावदातरुचयो, ये चेतनाचेतना , दृष्टा विश्वमनः प्रमोदविदुरा भावाः स्वतः सुन्दराः। तांस्तत्रैव दिने विपाकविरसान् हा नश्यतः पश्यतः, चेतः प्रेतहतं जहाति न भवप्रेमानुबन्धं मम ॥११॥ (शार्दूलविक्रीडितम् ) शान्त सुधारस विवेचन-२०
SR No.022305
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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