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________________ षष्ठभावनाष्टकम्-गीतम् भावय रे वपुरिदमतिमलिनं , विनय विबोधय मानसनलिनम् , पावनमनुचिन्तय विभुमेकं , परम महोदयमुदितविवेकम् ॥भावय रे० ॥७६॥ अर्थ-हे विनय ! तू इस प्रकार की भावना कर कि यह शरीर अत्यन्त मलिन है। अपने मनोमय कमल को विकसित कर जहाँ एक प्रकाशवान्, विवेकवान् और महापवित्र आत्मा है, उसका बारम्बार चिन्तन कर ।। ७६ ।। विवेचन मलिन देह में पावन आत्मा जीवात्मा जब तक इस संसार में भटकती है, तब तक उसे प्रत्येक जन्म में देह धारण करना पड़ता है। तैजस और कार्मरण शरीर तो अनादि काल से जीवात्मा से लगे हुए ही हैं। परन्तु भव-धारण के लिए जीवात्मा को औदारिक या वैक्रियिक शरीर भी धारण करना पड़ता है। देव और नारक के भव में प्रात्मा तैजस-कार्मरण के साथ वैक्रिय शरीर धारण करती है और मनुष्यतियंच के भव में तैजस कार्मण के साथ औदारिक शरीर धारण करती है। शान्त सुधारस विवेचन-१९२
SR No.022305
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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