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________________ ज्ञानसार शमसूक्तसुधासिक्तं येषां नक्तं दिनं मनः । कदापि ते न दह्यन्ते, रागोरगविषोर्मिभिः ॥६॥७॥ अर्थ : शम के सुभाषित रूपी अमृत से जिनका मन रात-दिन सिंचित है, वे राग-रूपी सर्प की विषैली फुष्कार से दग्ध नहीं होते । (नहीं जलते) विवेचन : शमरस से युक्त विविध शास्त्र-ग्रन्थ, धर्मकथा और सुभाषितों से जिसकी आत्मा सिंचित है, उसमें भूलकर भी कभी राग-फणिधर की विषैली लहर फैल नहीं सकती। जो नित्य प्रति उपशम से भरपूर ऐसे ग्रन्थों का अध्ययनमनन करता हो, उसके मन में पार्थिव / भौतिक विषयों के प्रति आसक्ति, रति और स्नेह की विह्वलता उभर नहीं सकती। महामुनि स्थूलिभद्रजी के समक्ष एक ही कक्ष और एकान्त में नगरवधु कोशा सोलह सिंगार सज, नृत्य करती रही । अपने नयन-बाण और कमनीय काया की भाव-भंगिमा से रिझाती रही । लेकिन स्थूलिभद्रजी क्षणार्ध के लिये भी विचलित नहीं हुए, बल्कि अन्त तक ध्यान योग में अटल-अचल-अडिग रहे .। यह भला कैसे सम्भव हुआ ? केवल उपशमरस से युक्त शास्त्र-परिशीलन में उनकी तत्लीनता के कारण ! महीनों तक षड्रसयुक्त भोजन ग्रहण करने के उपरान्त भी उन्हें मद-मदन का एक भी बाण भेद नहीं सका । भला किस कारण ? वह इस लिए कि उनके हाथ और मुँह खाने का काम कर रहे थे, लेकिन मन-मस्तिष्क समता-योग के सागर में गोते जो लगा रहा था ! इन्द्रियाँ जब अपने-अपने विषयों में व्याप्त रहती हैं, तब उसमें मन नहीं जुड़े और उपशमरस की परिभावना में लीन रहे, तो सब काम सुलभ बन जाएगा। राग-द्वेष तुम्हारा बाल भी बांका नहीं कर सकेंगे। अतः हमें सर्वप्रथम अपने मन को, उपशमपोषक धर्मग्रन्थो के अध्ययन-मनन ओर बार-बार उसके परिशीलन में जोड़ना चाहिए । ठीक इस बीच, इन्द्रियों को अतिप्रिय हो ऐसे विषय-विकारों से उसका सम्पर्क तोड देना चाहिए । भले फिर जोर-जबरदस्ती क्यों न करनी पड़े ! क्योंकि पीछेहट करना विनिपात को न्यौता देना होगा। जब आत्मा अलिप्त बन जाती है, तब हर बात सम्भव और सुगम होती है। इस तरह संसर्ग के टूट जाने से और उपशमपोषक ग्रन्थों के निरन्तर पठन-पाठन से उपशमरस की बाढ़
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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