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शम
होती समता से युक्त हैं, ऐसे मुनिश्रेष्ठ की तुलना इस चराचर जगत में किसी के साथ नहीं की जाती है।
विवेचन : चराचर सृष्टि में ऐसा कोई जङ-चेतन पदार्थ नहीं है, जिसकी तुलना समता-योगी के साथ की जा सके । समता-योगी के आत्मप्रदेश पर समतारस का जो महोदधि हिलोरे ले रहा है, वह 'स्वयंभूरमण' नामक विराट, अथाह वारिधि के साथ निरंतर स्पर्धा करता रहता है। समता-महोदधि का विस्तार अनन्त अपार है, जबकि उसकी गहराई भी असीम अथाह ! तब भला स्वयंभूरमण समुद्र उसकी तुलना में कैसा होगा ? ..
साथ ही, समता-महोदधि अविरत रुप से वृद्धिगत होता रहता है। इसी तरह ज्यों-ज्यों समतारस में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है, त्यों-त्यों मुनि अगमअगोचर सुखप्रदायी कैवल्यश्री के सन्निकट गतिशील होता जाता है । वह इस पार्थिव विश्व में रहते हुए स्वच्छन्दतापूर्वक मोक्ष-सुख का आस्वाद लेता रहता है।
जो निजानन्द में आकण्ठ डूब गया, परवृत्तान्त के लिये अन्धा, बहरा और गुंगा हो गया, मद-मदन-मोह-मत्सर-रोष-लोभ और विषाद का जो विजेता बन गया, एक मात्र अव्याबाध-अनन्त सुख का अभिलाषी बन गया, ऐसे जीवात्मा को भला, इस दुनिया में क्या उपमा दी जाय ? ऐसे मुनिश्रेष्ठ के लिये यहाँ ही मोक्ष है। श्री 'प्रशमरति' में ठीक ही कहा है :
निर्जित मदमदनानां, वाक्कायमनोविकाररहितानाम् । विनिवृत्तपराशानामिहैव मोक्षः सुविदितानाम् ॥२३८॥
'जो जीवात्मा मद-मदन से अजेय है, मन-वचन-काया के विकारों से रहित है और पर की आशा से विनिवृत्त है, उसके लिये इस सृष्टि पर ही मोक्ष है ।' तात्पर्य यह है कि समतारस के स्रोत में प्लावित हो, स्वर्गीय आनन्द के आस्वाद का अनुभव करने और मद-मदन विजेता बनने के लिये घोर पुरुषार्थ करना चाहिये । मन-वचन-काया के समस्त अशुभ विकारों को तिलांजलि देनी चाहिये । साथ ही, पर-पदार्थ की स्पृहा से पूर्णरूपेण निवृत्त होना चाहिये । परिणामस्वरुप, मानव इसी जीवन में मोक्ष-सुख का अधिकारी बन सकता है !