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परिशिष्ट : उपसर्ग-परिसह
१६. उपसर्ग - परिसह
उपसर्ग का अर्थ है कष्ट, आपत्ति ।
जब श्रमण भगवान महावीर देव ने संसारत्याग किया था तब इन्द्र
ने
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प्रभु से
प्रार्थना की थी :
"प्रभो ! तवोपसर्गाः भूयांसः सन्ति ततो द्वादशवर्षो यावत् वैयावृत्यनिमित्तं तवान्तिके तिष्ठामि !"
१
'हे प्रभो ! आपको अनेक उपसर्ग हैं इसलिए बारह वर्ष तक मैं वैयावच्च (सेवा) के लिए आपके पास रहता हूँ ।'
भगवान' को उपसर्ग आये अर्थात् कष्ट हुए। ये उपसर्ग तीन वर्गों से आते हैं । १. देव, २. मनुष्य, ३ तिर्यंच । इन तीन की तरफ से दो प्रकार के उपसर्ग होते हैं : १. अनुकूल, २. प्रतिकूल
(१) भोग-संभोग की प्रार्थना आदि अनुकूल उपसर्ग हैं ।
(२) मारना, लूटना, तंग करना आदि प्रतिकूल उपसर्ग हैं ।
शास्त्रीय भाषा में अनुकूल उपसर्ग को 'अनुलोम उपसर्ग' कहते हैं और प्रतिकूल उपसर्ग को 'पड़िलोम उपसर्ग' कहते हैं ।
जिनको अन्तरंग शत्रु काम-क्रोध-लोभ आदि पर विजय प्राप्त करने की साधना करनी हो उन्हें ये उपसर्ग समता भाव से सहन करने चाहिए भगवान महावीर ऐसे उपसर्ग सहकर ही वीतराग - सर्वज्ञ बने थे ।
परिसह :
मोक्ष मार्ग में स्थिर होना और कर्मनिर्जरा के लिए सम्यक् सहन करने को परिसह कहते हैं । परन्तु यह परिसह जीवन की स्वाभाविक परिस्थितियों में से उत्पन्न हुए कष्ट होते हैं । परिसह में कोई देव, मनुष्य या तिर्यंच के अनुकूल-प्रतिकूल हमले नहीं होते हैं । परिसह का उद्भवस्थान मनुष्यों का स्वयं का मन होता है । बाह्य निमित्तों को प्राप्तकर मन में उठता हुआ क्षोभ है । ये परिसह २२ प्रकार के हैं। 'नवतत्त्व प्रकरण ' आदि ग्रन्थों में इनका स्पष्ट वर्णन मिलता है ।
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१. जे केई उपसग्गा उप्पज्जंति तं जहा दिव्वा वा माणुसा वा, तिरिक्ख - जोणिया वा, अणुलोमा वा, पड़िलोमा वा ते उप्पन्ने सम्मं सहइ, खमइ, तितिक्खड़, अहियासेड़ ।
-कल्पसूत्र: सूत्र ११८