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________________ ज्ञानसार 1 किये हैं । वे सिद्धसेन दिवाकर, जिनभद्रगणि, मल्लवादी, हरिभद्रसूरिजी आदि महान् आचार्यप्रवरों को पुनः पुनः वन्दना हो कि जिन्होंने सर्वनयाश्रित धर्मशासन की सुन्दर प्रभावना की साथ ही अपने रोम-रोम में उसे परिणत कर अद्भुत दृष्टि प्राप्त की है । ४८० 'भवभावना' ग्रन्थ में ऐसे महान् आचार्यों का इसी दृष्टि से गुणानुवाद किया गया है : भद्दं बहुसुयाणं बहुजणसंदेहपुच्छणिज्जाणं । उज्जोइअ भुवणाणं झिणमि वि केवलमयंके ॥ "केवलज्ञान रुपी चन्द्र के अस्त होते ही जिन्होंने समस्त भूमण्डल को प्रकाशित किया है और बहुत लोगों के संदेह जिनको पूछे जा सकें, ऐसे बहुश्रुतों का भद्र हो ।" इस प्रकार बहुश्रुत सर्वनयज्ञ महापुरुषों के प्रति भक्ति- बहुमान प्रदर्शित किया गया है... । उन्हें बार- बार वन्दन किया है । उनका सर्वोपरि महत्त्व बताया गया है । ,, निश्चये व्यवहारे च त्यक्त्वा ज्ञाने च कर्मणि । एकपाक्षिक विश्लेषमारुढाः शुद्धभूमिकाम् ॥३२॥७॥ अमूढलक्ष्याः सर्वत्र पक्षपातविवर्जिताः । जयन्ति परमानन्दमयाः सर्वनयाश्रयाः ॥३२॥८॥ अर्थ : निश्चयनय में, व्यवहारनय में, ज्ञाननय में और क्रियानय में, एक पक्ष में रहे भ्रान्ति के स्थान को छोडकर शुद्ध भूमिका पर आरुढ कभी लक्ष्य नहीं चूकते, ऐसी सभी पक्षपातरहित परमानन्द-स्वरुप सर्व नयों के आश्रयभूत (ज्ञानीजन) सदा जयवन्त हैं । विवेचन : उनका निश्चय नय के सम्बन्ध में पक्षपात न हो और ना ही व्यवहार नय के सम्बन्ध में ! वह ज्ञान नय का कभी मिथ्या आग्रह न करे और ना ही क्रियानय के विषय में ।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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