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________________ ४७८ ज्ञानसार समन्वय की हो जाती है । I व्यवहार पक्ष में वह अपनी मध्यस्थता का परोपकार में उपयोग करता है । ठीक वैसे ही नयवाद को लेकर जहाँ वाद-विवादात्मक वाग्युद्ध पूरे जोश से खेला जाता हो, वहाँ मध्यस्थदृष्टि महात्मा अपनी विवेकदृष्टि से सम्बन्धित पक्षों को समझाने का प्रयत्न करता है । विभिन्न नयों के आग्रही बने जीव, मिथ्याभिमान से पीडित होते हैं, अथवा आत्मिक-क्लेश से निरन्तर दग्ध होते हैं और उनके लिये यह स्वाभाविक भी होता है । इन्द्रभूति गौतम का जब भगवान महावीर के पास आगमन हुआ था, तब यही परिस्थिति थी । वे मिथ्याभिमान के ज्वर से उफन रहे थे । मन में क्लेश कितना था ? क्योंकि वे एक ही नय के दृढ़ आग्रही थे । भगवन्त ने उन्हें सर्व नयों की समन्वयदृष्टि प्रदान की । उन्हें सभी नयों का आश्रित होना सिखाया । 1 किसी एक मत... एक ही वाद... एक ही मन्तव्य के प्रति मोहित न बन, सर्वनयों का आश्रित बनना ही जीवन का एकमेव शान्ति मार्ग है । श्रेयः सर्वनयज्ञानां विपुलं धर्मवादतः । शुष्कवादात् विवादाच्च परेषां तु विपर्यायः ॥ ३२ ॥५ ॥ अर्थ : सर्व नयों के ज्ञाताओं का धर्मवाद से बहुत कल्याण होता है, जबकि एकान्तदृष्टिवालों का तो शुष्कवाद एवं विवाद से विपरीत (अकल्याण) होता है। विवेचन : किसी प्रकार का वाद नहीं चाहिये, ना ही विवाद चाहिए । संवाद ही चाहिये । वाद-विवाद में अकल्याण है, संवाद में कल्याण है । ऐसे संवाद का समावेश सिर्फ धर्मवाद में है । तत्त्वज्ञान का अर्थी मनुष्य हमेशा धर्मवाद की खोज में रहता है । तत्त्वज्ञान विषयक जिज्ञासा व्यक्त करता है और तत्त्ववेत्ता का कर्तव्य है कि वह उसकी जिज्ञासा का निवारण करे, उसे संतुष्ट करे। यही तो धर्मवाद है । सिर्फ अपना ही मत - अभिप्राय दूसरे पर आरोपित करने के लिये शुष्क वाद विवाद
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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