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सर्वनयाश्रय
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वचन अपेक्षायुक्त है, अन्य नयों के सापेक्ष कहा गया है, तब सच्चा और यदि अन्य नयों से निरपेक्ष कहा गया है, तो झूठ और अप्रमाणिक है ।'
'उपदेशमाला' में कहा गया हैअपरिच्छियसुयनिहसस्स, केवलमभिन्नसुत्तचारिस्स । सव्वुज्जमेण वि कयं अन्नाणतवे बहुं पडई ॥
"श्रुत-सिद्धान्त के रहस्य को समझे बिना ही केवल सूत्र के अक्षरों का अनुसरण कर जो अपनी प्रवृत्ति रखता है, उसका तीव्र प्रयत्नों से किया गया बहुत भी क्रियानुष्ठान, अज्ञान तप माना गया है।"
जो शास्त्रवचन अपने सामने आता है, वह वचन किस आशय एवं अपेक्षा से कहा गया है-यह अवगत करना निहायत जरूरी है । क्योंकि अपेक्षा और आशय को समझे बिना निरपेक्ष वृत्ति से उसका अनुसरण करना नितान्त अप्रमाण है, मिथ्या है।
सर्व नयों का ज्ञान तभी कहा जाता है, जब वचन की अपेक्षा का ज्ञान हो, तभी साधक आत्मा को अपूर्व समता का अनुभव होता है । ज्ञानप्रकाश सोलह कलाओं से खिल उठता है ।
लोके सर्वनयज्ञानां, ताटस्थ्थं वाऽप्यनुग्रहः । स्यात् पृथग्नयमूढानां, स्मयार्तिर्वाऽतिविग्रहः ॥३२॥४॥
अर्थ : लोक में सर्व नयों के ज्ञाता को मध्यस्थता अथवा उपकारबुद्धि होती है, जबकि विभिन्न नयों में मोहग्रस्त बने व्यक्ति को अभिमान की पीड़ा अथवा अत्यन्त क्लेश होता है।
विवेचन : मध्यस्थदृष्टि ! उपकारबुद्धि !
सभी नयों के ज्ञान के ये दो फल हैं । जैसे-जैसे नयों की अपेक्षा का ज्ञान होता जाता है, वैसे-वैसे उसकी एकान्त दृष्टि मन्द होती चली जाती है । परिणामतः मध्यस्थ दृष्टि की किरणें ज्योतिर्मय हो उठती हैं। वह किसी पक्षविशेष की ओर झुकता नहीं, किसीके मत का दुराग्रही नहीं बनता । बल्कि उसकी दृष्टि