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________________ मग्नता २१ दौडे चले आओगे । अनादिकाल से प्राणी मात्र का यह स्वभाव रहा है कि यदि वह एक बार किसी चीज का उपभोग करेगा, स्वाद चखेगा और वह उसे 'अपूर्व रस से भरपूर / तरबतर लग जायेगा तो उसका स्वाद लेने / उपभोग करने के पीछे पागल बन जाएगा । हालाँकि जगत के भौतिक सुख प्राप्त करना जीवात्मा के हाथ की बात नहीं है । वे उसके लिये सर्वथा अप्राप्य सदृश ही हैं । अतः उसको पाने के लिये अधीर / आतुर / आकुल-व्याकुल होने के उपरान्त कोई दूसरा मार्ग नहीं है । जबकि ज्ञान मग्नता का सुख अपने हाथ की बात है । जब इसे पाने की इच्छा मन में पैदा हो जाए, तब आसानी से पा सकते हैं । सभी बातों का सार यह है कि ज्ञान-मग्नता का सुख, शाब्दिक वर्णन पढ़कर / सुनकर अनुभव नहीं किया जा सकता, बल्कि इसके लिये स्वयं को अनुभव करना पड़ता है । शमशैत्यप्रुषो यस्य, विप्रुषोऽपि महाकथा । किं स्तुमो ज्ञानपीयुषे, तत्र सर्वाङ्गमग्नता ? ॥२॥७॥ अर्थ : ज्ञानामृत के एक बिन्दु की भी उपशमरूपी शीतलता को पुष्ट करनेवाली अनेकानेक कथायें मिलती हैं, तब ज्ञानामृत में सर्वांग मग्नता / लीन अवस्था की स्तुति भला किन शब्दों में की जाए ? विवेचन : केवल एक बूंद ! ज्ञान - पीयूष की एक बूंद ! लेकिन उसके असर की / प्रभाव की न जाने कितनी कथाएँ कहें ! किन शब्दों में उसका वर्णन करें ! एक-एक बूंद के पीछे चित्त को / मन को उपशम (इन्द्रिय - निग्रह) रस में सराबोर कर देनेवाले अगणित आख्यान और महाकाव्यों की रचना की गयी है । ज्ञानामृत की सिर्फ एक अकेली बूंद में मोह, मान, क्रोध, माया और लोभ के धधकते ज्वालामुखी को शान्त करने की असीम शक्ति निहित है । आहार, भय, मैथुन और परिग्रह की बाढ को वह लोटा सकती है । पाप के प्रलय को मिटा सकती है । सौन्दर्य और यौवन की प्रतिमूर्ति सी नृत्यांगना कोशा की चित्रशाला में
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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