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________________ नियाग (यज्ञ) ४२१ प्रश्न : परमात्म-पूजन या सुपात्र-दान, साथ ही साधुसेवा और सार्मिक भक्ति में राग अवश्यम्भावी है जबकि जिनेश्वरदेव ने राग को हेय कहा है, तब परमात्म-पूजनादि स्वरुप ब्रह्मयज्ञ भला उपादेय कैसे सम्भव है ? समाधान : राग दो प्रकार का होता है : प्रशस्त और अप्रशस्त । नारी, धनसम्पदा, यश-वैभव और शरीर जैसे पदार्थों के प्रति जो राग होता है वह अप्रशस्तराग कहा गया है ! जबकि परमात्मा, गुरु और धर्म विषयक राग प्रशस्तराग कहलाता है । अप्रशस्त राग के मुक्ति पाने हेतु प्रशस्त राग का अवलम्बन ग्रहण करना ही पड़ता है। प्रशस्त-राग के दृढ़ होने पर अप्रशस्त-राग की शक्ति उत्तरोत्तर क्षीण होती जाती है। प्रशस्त-राग में पाप-बन्धन नहीं होता ! अत: जिन जिनेश्वर देवने अप्रशस्त राग को हेय बताया है, वे ही जिनेश्वर भगवन्त ने प्रशस्त राग को उपादेय कहा है । यह सर्व सापेक्षदृष्टि की देन है ! प्रश्न : माना कि प्रशस्त-राग उपादेय है, लेकिन परमात्म-पूजन में प्रयोजित जल, पुष्प, धूप, दीपादि पदार्थों के उपयोग से हिंसा जो होती है, तब ऐसी हिंसक-क्रिया का अर्थ क्या है ? साथ ही हिंसक क्रियाओं से युक्त अनुष्ठान को ‘ब्रह्मयज्ञ' कैसे मान लें ? . समाधान : हालाँकि परमात्मा की द्रव्यपूजा में 'स्वरूपहिंसा' सम्भवित है । लेकिन अनेक आरम्भ-समारम्भ में रत गृहस्थ के लिए द्रव्यपूजा आवश्यक है । स्वरूपहिंसा से सम्पन्न कर्म-बन्धन नहीं के बराबर होते हैं । द्रव्य पूजा के कारण उत्पन्न शुभ भावों से वे पापकर्म नष्ट हो जाते हैं । गृहस्थ शुद्ध ज्ञानदशा में रमण नहीं कर सकता है, अतः उसके लिए द्रव्यक्रिया करना अनिवार्य है। द्रव्य-पूजा के माध्यम से परमात्मा के प्रति जीव का प्रशस्त-राग का अनुबन्धन होता है । साथ ही उक्त रागानुबन्धन से प्रेरित हो, परमात्मा की आज्ञा का पालन करने की शक्ति प्राप्त होती है और शक्ति बढने पर, क्रमशः वृद्धि होने पर वह गृहस्थ-जीवन का परित्याग कर मुनिजीवन का स्वीकार कर लेता है । तब उसके लिए द्रव्य-क्रिया आवश्यक नहीं होती, जिससे स्वरूपहिंसा सम्भव है। ... एक प्रवासी ! गर्मी का मौसम ! मध्याहन का समय ! सतत प्रवास
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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