SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 386
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५. परिग्रह-त्याग परिग्रह ! बाकइ इस 'ग्रह' का प्रभाव सकल विश्व पर छाया हुआ है ! आश्चर्य इस बात का है कि मानव अन्य ग्रहों के शिकंजे से मुक्त होने के लिए आकुल-व्याकुल है, जबकि इसकी प्राप्ति के लिए जमीन-आसमान एक कर देता है। मानव-मात्र पर इसका कितना जबरदस्त असर है - यह तुम्हें जानना ही होगा । दिल को कम्पायमान करनेवाली और धन-मुर्छा को कम्पायमान करनेवाली परिग्रह की अजीबो गरीब बातें पढ़कर तुम्हें एक नयी दिव्य दृष्टि प्राप्त होगी। न परावर्तते राशेर्वक्रतां जातु नोज्झति । परिग्रहग्रहः कोऽयं विडम्बितजगत्त्रयः ॥२५॥१॥ .. अर्थ : न जाने परिग्रहरूपी यह ग्रह कैसा है, जो राशि से दुबारा लौट नहीं आता, कभी वक्रता का परित्याग नहीं करता और जिसने त्रिलोक को विडंबित किया है ? विवेचन :-सौ... दो सौ, हजार... दो हजार, लाख... दो लाख, कोटि... दो कोटि, अरब... दस अरब ? अंक के बाद अंक बढ़ते ही जाते हैं । पलटकर देखने का काम नहीं। वाकई 'परिग्रह' नामक ग्रह ने प्राणी मात्र के जन्म-नक्षत्र को चारों ओर से घेर लिया है। उसके उत्पात, तृष्णा और व्याकुलता को कभी देखा है ? यदि तुम इस पापी ग्रह के असर तले होंगे तो नि:संदेह उन उत्पातों को, तृष्णा को और व्याकुलता को समझ नहीं पाओगे । नदी के तीव्र प्रवाह में डूबता मानव अन्य
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy