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________________ मध्यस्थता २११ हर्षोल्लास इसी मध्यस्थ-दृष्टि में समाया हुआ है । जड़-चेतन द्रव्यों के प्रति रागद्वेष करने से और विकृत आनन्द से मन बहिर्मुख बनता है, भवाभिनन्दी बनता है। तदुपरान्त राग-द्वेषयुक्त बाह्यात्मा अपने कुत्सित कार्यों को प्रामाणिक सिद्ध करने के लिए बालसुलभ क्रीड़ा की तरह कुतर्क का आधार लेता है । फलस्वरूप ऐसे जीवों को नानाविध उलाहनाओं का सामना करना पड़ता है। लोक निंदा का भोग बनना बड़ता है... । ___ मध्यस्थता को सिद्ध करने के लिए निम्नांकित बातों का पालन करना पड़ता है : राग और द्वेष का त्याग, अन्तरात्म-भाव की साधना, कुतर्क का त्याग इन तीन बातों को जीवन में आत्मसात् करनी चाहिए ! राग-द्वेष के परित्याग हेतु हमें उनकी पूर्वभूमिका का समुचित मूल्यांकन कर विचार करना चाहिए । प्राकृत मनुष्य में राग-द्वेष की जो प्रचुरता दिखायी देती है, उसके पीछे दो तत्त्व काम कर रहे हैं : सुखासक्ति और भोगोपभोग की प्रवृत्ति । जब उसे सुख मिलता है और वासना-पूर्ति यथेष्ट मात्रा में होती है, तब वह रागी बनता है। लेकिन जब सुख नहीं मिलता और वासनापूर्ति नहीं होती तब वह द्वेषी बनता है। ऐसी हालत में जड़-चेतन दोनों के प्रति उसके मन में असीम राग और अनहद द्वेष निरंतर उफनता रहता है । इस तरह रागी और द्वेषी ऐसा प्राकृत मनुष्य सुख संपदा और काम-वासना का पक्षपाती बनता है और उसके वशीभूत होकर नाना प्रकार के निंदनीय कार्य करता भटकता रहता है ! तटस्थ पुरुष इन्द्रिय-जन्य सुखों के प्रति विरक्त और भोगोपभोग वृत्ति से विमुख होता है। वह सुख-भोग का कभी पक्षघर नहीं होता ! फलतः वह सुख-भोगजन्य राग-द्वेष से सर्वथा पर होता है । लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वह पूर्णरूप से राग-द्वेष से मुक्त हो जाता है । विरक्त बन जाने के बावजूद भी उसमें रहे असत् तत्त्वों के प्रति अनुराग और सत् तत्त्वों के प्रति द्वेष, उसे
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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