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विवेक
२०७ जब तक इस विवेक का अभाव होता है तब तक जड़-पुद्गलों के कर्ता के रुप में आत्मा का भास होता है। कार्यरुप जड़-पुद्गल दिखायी देते हैं । करुणरुप जड़-इन्द्रियाँ और मन, एवं संप्रदान, अपादान, अधिकरण के रूप में भी जड़-पुद्गल ही दिखायी देते हैं । आत्मा और पुद्गलों के अभेद की कल्पना पर ही समस्त सम्बन्ध कायम किए जाते हैं । अत: सारी दुनिया विषमताओं से परिपूर्ण नजर आती है। विषमताओं से परिपूर्ण विश्व को देखनेवाला भी विषमता से घिर जाता है । जड़-चेतन के अभेद का अविवेक अनन्त यातनाओं से युक्त संसार में जीव को गुमराह और भटकते रहने के लिए प्रेरित कर देता है।
तात्पर्य यह है कि जगत में जो नाते-रिश्ते होते हैं, उन सबका आत्मा के साथ विनियोग कर देना चाहिए । आत्मा, आत्मगुण और आत्मा के पर्यायों की सृष्टि में, उनमें परस्पर रहे सम्बन्ध और रिश्तों को भली-भाँति समझना चाहिये ! तभी भेद-ज्ञान अधिकाधिक दृढ़ होता है।
संयमात्र विवेकन शाणोनोत्तेजितं मुनेः । धृतिधारोल्बणं कर्मशत्रुच्छेदक्षम भवेत् ॥१५॥८॥
अर्थ : विवेकरूपी सान पर अत्यन्त तीक्ष्ण किया हुआ और संतोष रूपी धार से उग्र, मुनि का संयमरूपी शस्त्र, कर्मरूपी शत्रु का नाश करने में समर्थ होता है।
विवेचन : कर्म-शत्रु के उच्छेदन हेतु शस्त्र चाहिए ना ? वह शस्त्र तीक्ष्ण / नुकीला होना चाहिए । शस्त्र की धार को तीक्ष्ण करने के लिए सान भी जरुरी है । यहाँ शस्त्र और सान, दोनों बताए गए हैं।
संयम के शस्त्र की संतोषरुपी धार को विवेकरुपी सान पर तीक्ष्ण करो। तीक्ष्ण धारवाले शस्त्रास्त्रों से सज्ज होकर शत्रु पर टूट पड़ो और उसका उच्छेदन कर विजयश्री हासिल कर लो । कर्म क्षय करने हेतु यहाँ तीन बातों का निर्देश किया गया है :
* संयम * संतोष * विवेक