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ज्ञानसार
रुप - यौवन की कामना ! धनावह और रूक्मिणी उनके अन्तःकरण को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सके ! लेकिन महाश्रमण ने आत्मस्वभाव के ऐश्वर्य का ऐसा तो रूक्मिणी को रंग दिखाया कि रूक्मिणी मायावी - ऐश्वर्य से ही अलिप्त बन गयी, विरक्त हो गई ! आत्म-स्वभाव के अनूठे ऐश्वर्य की प्राप्ति हेतु पुरुषार्थशील हो गई !
आत्मस्वभाव का ऐश्वर्य जिस मुनिराज को आकर्षित करने में असमर्थ है, वे (मुनिराज) ही पुद्गलजन्य अधम ऐश्वर्य की ओर आकर्षित हो जाते हैं और अपने श्रमणत्व, साधुता को कलंकित कर बैठते हैं। दीनता की दर्दनाक चीखपुकार, आत्मपतन के विध्वंसकारी आघात और वैषयिक - भोगोपभोग के प्रहारों से लुढ़क जाते हैं, क्षत-विक्षत हो जाते हैं ! नटी के पीछे पागल अषाढाभूति की विवशता, अरणिक मुनि का नवयौवना के कारण उद्दीप्त वासना नृत्य, सिंहगुफावासी मुनी की कोशा गणिका के मोह में संयम - विस्मृति... यह सब क्या ध्वनित करता है ? सिर्फ आत्मस्वभाव के ऐश्वर्य की सरासर विस्मृति और भौतिक पार्थिव ऐश्वर्य पाने की उत्कट महत्त्वाकांक्षा ! वैषयिक - ऐश्वर्य की अगणित वासनाएँ और विलासी - वृत्ति ने उन्हें अशक्त कर दिया । अशक्त होकर वे द दर की ठोकरें खाने के लिए विश्व के गुलाम बन गये ! कालान्तर से उन्हें दुबारा आत्मस्वभाव के ऐश्वर्य का भान हुआ और निःस्पृहता की दीप - ज्योति पुनः उनमें प्रज्वलित हो उठी ! दिव्यशक्ति का अपने आप संचार हुआ ! फलस्वरूप उन्होंने आनन-फानन में स्पृहा की बेड़ियाँ तोड़ दीं और पामर से महान् बन गये, निर्बल से सबल बन गये !
परस्पृहा महादुःखं, निःस्पृहत्वं महासुखम् । एतदुक्तं समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः ॥
पुद्गल की स्पृहा करना संसार का महादुःख है, जबकि नि:स्पृहता में की अक्षय-निधि छिपी हुई है ! श्रमण जितना नि:स्पृह होगा उतना ही सुखी
सुख होगा ।
संयोजितकरैः के के प्रार्थ्यन्ते न स्पृहावहैः | अमात्रज्ञानपात्रस्य निःस्पृहस्य तृणं जगत् ॥१२॥२॥