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निःस्पृहता
१४५ की अम्बार देवांगनाओं सी वृन्द में खो जाना है ? क्या तुम्हें यश-कीर्ति की उत्तुंग चोटियां सर करनी है ? अरे भाई, जरा सोच, समझ और ये सब अरमान छोड़ दे ! इस में खुश होने जैसी कोई बात नहीं है । न तो शान्ति है, ना ही स्वस्थता!
मान लो की तुम्हें यह सब मिल गया, तुम्हारी सारी अभिलाषाएँ पूरी हो गयीं ! लेकिन आकांक्षापूर्ति हो जाने के पश्चात् भी क्या तुम सुखी हो जाओगे? तुम्हें परम शान्ति और दिव्यानन्द मिल जाएगा ? साथ ही, एक बार मिल जाने पर भी वह सब सदैव तुम्हारे पास ही रहनेवाला है ? तुम उसे दीर्घावधि तक भोग सकोगे? यह तुम्हारा मिथ्या भ्रम है, जिसके धोखे में कभी न आना ! अरे पागल, यह सब तो क्षणिक, चंचल और अस्थिर है। भूतकाल में कई बार इसे पाया है... फिर भी हमेशा दरिद्र ही रहा है, भिखारी का भिखारी । अब तो कुछ ऐसा पाने का भगीरथ पुरुषार्थ कर कि एक बार मिल जाने के बाद कभी जाएँ नहीं! जो अविनाशी है, अक्षय है, अचल है उसे प्राप्त कर ! यही स्वभाव है. आत्मा का स्वभाव ! ..
- मन ही मन तुम दृढ़ संकल्प करलो कि 'मुझे आत्म-स्वभाव की प्राप्ति करना है और करके ही रहूँगा ! इसके अलावा मुझे और कुछ नहीं चाहिए ! विश्वसाम्राज्य का ऐश्वर्य नहीं चाहिए, ना ही आकाश से बातें करती आलिशान अट्टालिकाओं की गरज है ! अगर किसी की आवश्यकता है तो सिर्फ आत्मस्वभाव के ऐश्वर्य की और परमानन्द की ! मुनिराज इस तरह का दृढ़ निश्चय कर नि:स्पृह बने । निःस्पृहता की शक्ति से वह विश्वविजेता बनता है ! फलतः संसार का कोइ ऐश्वर्य अथवा सौन्दर्य उसे आकर्षित करने में असफल रहेगा, उसे लुभा नहीं सकेगा । दिन-रात एक ही तमन्ना होनी चाहिए : मुझे तो आत्मस्वभाव चाहिए, उसके अलावा कुछ नहीं !" जिसमें आत्मस्वभाव के अतिरिक्त दूसरी कोई स्पृहा नहीं है, उसका ऐश्वर्य अद्वितीय और अनूठा होता है !
श्रेष्ठिवर्य धनावह ने महाश्रमण वज्रस्वामी के चरणों में स्वर्णमुद्राओं का कोष रख दिया ! उसकी पुत्री रुप-रंभा रूक्मिणी ने अपना रूप-यौवन समर्पित कर दिया ! लेकिन वज्रस्वामी जरा भी विचलित न हुए ! वे तो आत्म-स्वभाव के आकांक्षी थे ! उन्हें सुवर्णमुद्रा और मोती-मुक्ताओं की स्पृहा न थी, ना ही