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________________ निर्लेपता १३१ हैं : 'ज्ञानसिद्धो न लिप्यते', ज्ञानसिद्ध आत्मा, कज्जल - गृह समान इस संसार में रहते हुए भी निरन्तर अलिप्त रहती है । यदि आत्मा के अंग-प्रत्यंग को ज्ञानरसायन के लेप से पोत दिया जाय, तो फिर कर्म रुपी काजल उसे स्पर्श करने में पूर्णतया असमर्थ हैं । ऐसी आत्मा कर्म-काजल से पोती नहीं जा सकती । जिस तरह कमल-दल पर जल-बिन्दु टिक नहीं सकते, जल-बिन्दुओं से कमल-पत्र लीपा नहीं जाता, ठीक उसी तरह कर्म-काजल से आत्मा भी लिप्त नहीं होती । लेकिन यह अत्यन्त आवश्यक है कि ऐसी स्थिति में आत्मा को ज्ञान-रसायन से भावित कर देना चाहिये। ज्ञान-रसायन से आत्मा में ऐसा अद्भुत परिवर्तन आ जाता है कि कर्म काजल लाख चाहने पर भी उसे लेप नहीं सकता। 1 ज्ञान - रसायन सिद्ध करना परमावश्यक है और इसके लिये एकाध वैज्ञानिक की तरह अनुसन्धान में लग जाना चाहिये । भले इसके अन्वेषण में, प्रयोग में कुछ वर्ष क्यों न लग जाएँ ! क्योंकि भयंकर संसार में ज्ञान - रसायन के आधार की अत्यन्त आवश्यकता है । इसे सिद्ध करने के लिये इस ग्रन्थ में विविध प्रयोग सुझाये गये हैं। हमें उन प्रयोगों को आजमाना है और आजमा कर प्रयोग सिद्ध करना है। फिर भय नाम की वस्तु नहीं रहेगी। ज्ञान रसायन सिद्ध होते ही निर्भयता का आगमन होगा और परमानन्द पाने में क्षणार्ध का भी बिलम्ब नहीं होगा । नाहं पुद्गलभावानां कर्ता कारचिताऽपि च । भानुमन्ताऽपि चेत्यात्मज्ञानवान् लिप्यते कथम् ? ॥११॥२॥ अर्थ : मैं पौद्गलिक भावों का कर्ता, प्रेरक और अनुमोदक नही हूँ, ऐसे बिचारवाला आत्मज्ञानी लिप्त हो सकता है ? विवेचन : ज्ञान-रसायन की सिद्धि का प्रयोग बताया जाता है । "मैं पौद्गलिक भावों का कर्ता नहीं हूँ, प्रेरक नहीं हूँ। साथ ही पौद्गलिक भावों का अनुमोदक भी नहीं हूँ ।" इसी विचार से आत्मतत्त्व को सदा सराबोर रखना होगा । एक बार नहीं, बल्कि बार-बार । एक ही विचार और एक ही चिन्तन ! निरन्तर पौद्गलिक-भाव में अनुरक्त जीवात्मा उसके रूप-रंग और कमनीयता में खोकर, पौद्गलिक भाव द्वारा सर्जित हृदय - विदारक व्यथा-वेदना
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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