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________________ ९८ ज्ञानसार आठवें गुणस्थानक पर प्रथम वज्रऋषभ - नाराच संघयणवाला साधु प्रथम शुक्लध्यान करना प्रारम्भ करता है । तात्पर्य यह है कि उसे ध्यान करने की क्रिया करनी ही पड़ती है । घाती कर्मों का क्षय कर जो आत्मा पूर्णज्ञानी बन गयी, उसेभी सर्वसंवर और पूर्णानन्दप्राप्ति के अवसर पर योगनिरोध की क्रिया करनी पड़ती है, समुद्घात की क्रिया करनी पड़ती है । पूर्णता के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचने के लिये हर भूमिका पर आवश्यक क्रिया करनी पड़ती है । इस तथ्य से वही इन्कार कर सकता है, जिसे जैनदर्शनप्रणीत मोक्ष - मार्ग का ज्ञान न हो, जानकारी न हो । 1 तर्क से भी क्रिया का महत्त्व समझा जा सकता है । अनादिकाल से जीवात्मा पाप - क्रिया में आकण्ठ डूबी रहकर निरन्तर संसार - परिभ्रमण करती रही है । हमारी पाप-क्रियायें ही भव-भ्रमण की मूल कारण हैं । यदि भव-भ्रमण की क्रिया को रोकना है, तो पहले उसके कारणों का संशोधन कर उसे रोकना होगा, नष्ट करना पड़ेगा । पाप - क्रियाओं की प्रतिपक्षी धार्मिक क्रियाओं के द्वारा पाप - क्रियाओं का निवारण होता है । जहाँ तक जीव संसार–भ्रमण करता है, उसे कुछ न कुछ कर्म अथवा कोई न कोई क्रिया करनी ही पड़ती है, फिर भले ही वह पापक्रिया हो या धार्मिक क्रिया । जिसकी दृष्टि सत्-चित्-आनन्द स्वरुप पूर्णता की चरम चोटी तक पहुँच गयी हो, जो आत्मा उस मंजिल तक पहुँचने के लिये प्रयत्नों की पराकाष्ठा कर रही हो, वह आत्मा उन पवित्र क्रियाओं को करने के लिये सदैव तत्पर रहती है । घी अथवा तेल से भरा दीपक स्वयं ज्योति स्वरुप होते हुए भी यदि उसमें समय पर घी या तेल न पूरा जाय, तो क्या होगा ? मतलब वहाँ घी - तेल पूरने की क्रिया सर्वथा अपेक्षित है। बिजली खुद ही प्रकाश - स्वरुप होते हुए भी 'स्विच ऑन' करने की और पावर हाउस से विद्युत प्रवाहित करने की क्रिया अपेक्षित ही है । संसार का भला ऐसा कौन सा क्षेत्र है, जहाँ मन-वचनकाया की क्रियायें अपेक्षित नहीं हैं ? कौन सा ऐसा कार्य है कि जो क्रिया न 1
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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