SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९६ ज्ञानसार चित् - आनन्दमय अवस्था प्राप्त करने की भावना जाग्रत होनी चाहिये । यदि हो गयी है, तो उसके जीवन में ज्ञान और क्रिया का आगमन होते विलम्ब नहीं लगेगा । अनादि काल से प्रकृति का यह सनातन नियम है कि जो वस्तु पाने की तमन्ना मन में पैदा होती है, उसकी सही पहचान, पाने के उपाय और उसके लिये किया जानेवाला आवश्यक पुरुषार्थ होता ही है । जिसके मन में अतुल संपदा पाने की आकांक्षा जगी हो, वह उसे प्राप्त करने के लिये आवश्यक ज्ञान - प्राप्ति हेतु पुरुषार्थ क्या नहीं करता ? अवश्य करता है। किसी वैज्ञानिक के मन में अद्भुत आविष्कार की महत्त्वाकांक्षा उदित हो जाए, तो वह उसके लिये क्या अथक परिश्रम नहीं करेगा ? करेगा ही । ठीक उसी तरह अपनी आत्मा को परम विशुद्ध बनाने की तीव्र भावना जिनमें उत्पन्न हो गयी थी उनकी, तप्त शिलाओं पर आसनस्थ होकर, घोर तपस्या करने की आख्यायिकायें क्या नहीं सुनी हैं ? मोक्षमार्ग का ज्ञान हो जाने के उपरान्त भी अगर अनुकूल पुरुषार्थ करने में कोई जीव उदासीन रहता हो तो उसका मूल कारण प्राप्त सुखसमृद्धि में खोये रहने की कुप्रवृत्ति है, साथ ही नानाविध पाप - क्रियाओं का सहवास । जिन्हें वह छोड़ता नहीं है, उनसे अपना छुटकार पाता नहीं है । परमात्माभक्ति, प्रतिक्रमण, सामायिक, सूत्र- स्वाध्याय, ध्यान, गुरुभक्ति, ग्लानवैयावृत्य, प्रतिलेखन, तप-त्यागादि विमल क्रियाओं को सदासर्वदा विनीत भाव से अपने जीवन में कार्यान्वित करनेवाली आत्मा, निःसन्देह आत्मविशुद्धि के प्रशस्त राजमार्ग पर चल कर उसे सिद्ध करके ही रहती है जो यह कहता है कि, 'क्रियाओं का रहस्य... परमार्थ समझे बिना उन्हें करना अर्थहीन है, व्यर्थ है ।' यदि वह स्वयं उनका रहस्य और परमार्थ समझकर क्रियान्वित करता हो तो उसकी बात अवश्य गौर करने जैसी है। लेकिन आमतौर पर आत्म-विशुद्धि के लिये जो क्रियायें करनी पड़ती हैं, उन क्रियाओं में आनेवाली अनेक बाधायें सहने में जो सर्वथा असमर्थ और भयभीत होते हैं, वे लोग पवित्र क्रियाओं का अपलाप करते हैं और उन क्रियाओं का परित्याग कर पाप-क्रियाओं की गलियों में भटकते हुए पतन की गहरी खाई में गिर जाते हैं
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy