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इन्द्रिय-जय
विवेकद्वीपहर्यक्षैः, समाधिधनतस्करैः ।
इन्द्रियैर्यो न जितोऽसौ धीराणां धुरि गण्यते ॥७॥८॥ ____ अर्थ : जो विवेक रूपी गजेन्द्र का वध करने के लिये सिंह समान और निर्विकल्प ध्यान रूपी समाधि-धन को लूटनेवाले लुटेरे रुपी इन्द्रियों से जीता नहीं गया है, वह घीर नरपुंगवों में अग्रगण्य माना जाता है।
विवेचन : जो धीर-गंभीर में भी धीर-गंभीर और श्रेष्ठ पुरुषों में भी सर्वश्रेष्ठ । गगनभेदी गर्जना के साथ आगे बढते काल-कराल केसरी को देखकर भी जिसमें भय का संचार तक न हो, ऐसी अटूट धीरता ! साक्षात् मृत्यु सदृश बन-केसरी भी जिसके मुखमण्डल की अद्वितीय आभा निरख अपना मार्ग बदल दे-ऐसी उसकी वीरता ! ..
एक-एक इन्द्रिय एक-एक वनकेसरी की भाँति बलशाली और शक्तिमान है, कुटिल निशाचार है। सावधान ! तुम्हारे आत्मांगण में झुलते गजेन्द्र का शिकार करने के लिये पंचेन्द्रिय के पाँच 'नरभक्षी केसरी' आत्म-महल के आसपास घात लगाये बैठे हैं। तुम्हारे आत्म-महल के कण-कण में दबे समाधिधन को लूटने के लिये दुष्ट निशाचर मार्ग खोज रहे हैं ।
___ कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारी आँखों में धूल झोंक कर इन्द्रिय रूपी वनकेसरी और चोर अपना उल्लू सीधा न कर दें । अतः इन पर विजय फनी हो तो दृढ़ संकल्प कीजिए : "इन्द्रियजन्य सुख का, वैभव का मुझे उपभोग नहीं करना है।" और फिर देखिए, क्या चमत्कार होता है। वर्ना अनेक विषय लुभावना रूप धारण कर तुम्हारे सामने उपस्थित होंगे । इन्द्रियाँ सहज ही उसके प्रति आकर्षित होंगी और मनवा होश गँवा बैठेगा । बस, तुम्हारी पराजय होते पल का भी विलम्ब नहीं होगा। तुम्हारे विवेक-ज्ञान का यहीं अन्त हो जाएगा। फलस्वरुप तुम्हारे पास अनादिकाल से दबे पड़े निर्विकल्प समाधि-निधि की चोरी होते देर नहीं लगेगी और तुम पश्चाताप के आँसू बहाते, हाथ मलते रह जाओगे । यदि चाहते हो कि ऐसा न हो, पश्चाताप करने की बारी न आये, तो अपने आप को कठोर आत्मनिग्रही बनाना होगा । जब विषय नानाविध रुप से सज-धज कर सामने आ जायें, तब तुम्हारे में उसकी ओर नज़र उठाकर देखने की भावना ही पैदा न