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________________ णियदेहसरिच्छं पिच्छिदूण परिवग्गहं पयत्तेण । अच्चेयणं पि गहियं झाइज्जइ परमभावेण ॥ ३४४॥ बहिरात्मा व्यक्ति दूसरे की देह को अपनी देह की तरह ही देखकर उसकी अचेतना के बावजूद यत्नपूर्वक और परम भाव से उसी का ध्यान करता है। सपरज्झवसाएणं देहेसु य अविदिदत्थमप्पाणं । सुयदाराईविसए मणुयाणं वड्ढए मोहो ॥ ३४५॥ आत्मा के स्वरूप को नहीं समझनेवाले, अपनी और दूसरों की देहों को ही अपनी और दूसरों की आत्मा मानने वाले मनुष्यों का अपनी पत्नी, पुत्र आदि से मोह बढ़ता जाता है। मिच्छाणाणेसु रदो मिच्छाभावेण भाविओ संतो। मोहोदएण पुणरवि अंगं स मण्णए मणुओ ॥ ३४६ ॥ मोहकर्म के उदय से मिथ्याज्ञान और मिथ्याभाव में पड़ा हुआ मनुष्य आगामी जन्म में भी देह को ही पाना चाहता है। जो देहे णिरवेक्खो णिबंदो णिम्ममो णिरारंभो । आदसहावे सुरओ जोदि जो लहदि णिव्वाणं ॥ ३४७॥ आत्म स्वभाव में रत जो योगी देह के प्रति निरपेक्ष और निरारम्भ उदासीन रहता है, रागद्वेष के द्वन्द्व में नहीं उलझता, देह के प्रति ममत्व और परिग्रह से रहित होता है वह निर्वाण को प्राप्त करता है। 91
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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