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________________ अक्खाणि बाहिरप्पा अंतरअप्पा ह अप्पसंकप्पो । कम्मकलंकविमुक्को परमप्पा भण्णए देवा ॥ ३४० ॥ इन्द्रियाँ बहिरात्मा हैं | अन्तरंग में प्रकट संकल्प अन्तरात्मा हैं। जो कर्म के कलंक से मुक्त है वह परमात्मा है । वही देव है । मलरहिओ कलचत्तो अणिंदिओ केवलो विसुद्धप्पा । परमेठ्ठी परमजिणो सिवकरो सासओ सिद्धो ॥ ३४१ ॥ कर्ममल से रहित, शरीर रहित, इन्द्रियरहित और केवल ज्ञानमय विशुद्ध आत्मा ही परमात्मा है । वह परम पद में अवस्थित परम जिन है । कल्याणकर, अविनाशी और निर्वाण में स्थित सिद्ध है । आरुहवि अन्तरप्पा बहिरप्पा छंडिदूण तिविहेण । झज्जर परमप्पा उवट्टं जिणवरिदेहिं ॥ ३४२ ॥ जिनवरेन्द्र तीर्थंकर भगवान् का यह स्पष्ट उपदेश है कि मन-वचन-काय से बहिरात्मा का परित्याग करके अन्तरात्मा का आश्रय लेकर परमात्मा का ध्यान करना चाहिए। 90 बहिरत्थे फुरियमणो इंदियदारेण णियसरूवचुओ । णियदेहं अप्पाणं अज्झवसदि मूढदिट्ठीओ || ३४३॥ हरात्मा व्यक्ति मूढ़ दृष्टि होता है। उसका मन बाह्य पदार्थों के प्रति मचलता है। वह अपने इन्द्रिय-द्वारों से अपने स्वरूप से च्युत होता है और अपनी देह को ही आत्मा समझता है।
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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