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________________ उवसग्गपरिसहसहा णिजणदेसे हि णिच्च अत्थइ । सिल कट्ठे भूमितले सव्वे आरुहइ सव्वत्थ ॥ १६४ ॥ प्रव्रज्या में उपसर्ग (देव, मनुष्य,तिर्यंच, अचेतन कृत उपद्रव) और परिषह (दैव कर्मयोग से घटित होने वाले बाईस परिषह) को सहन करना पड़ता है। सदैव निर्जन प्रदेश में रहना होता है और चट्टान, काष्ठ,भूतल पर ही सर्वत्र बैठना, सोना पड़ता है। पसुमहिलसंढसंगं कुसीलसंगंण कुणइ विकहाओ सज्झायझाणजुत्ता पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥ १६५॥ प्रव्रज्या में पशु, महिला, नपुंसक और व्यभिचारी व्यक्ति की संगति से बचना होता है। विकथाएं (स्त्री, राजा, भोजन, चोर आदि की कथाएं) नहीं करनी होतीं। स्वाध्याय और ध्यान में ही लीन रहना होता है। तववयगुणेहिं सुद्धा संजमसम्मत्तगुणविसुद्धा य । सुद्धा गुणेहिं सुद्धा पव्वजा एरिसा भणिया ॥ १६६ ॥ जिस प्रव्रज्या में तपस्या, पंचमहाव्रतों का परिपालन, विभिन्न गुण,संयम और सम्यक्त्व हो वह शुद्ध होती है। प्रव्रज्या में प्रव्रज्या के स्वयं के गुणों से शुद्धता आती है, बाह्य दिखावे से नहीं। एवं आयत्तगुपज्जत्ता बहुविसुद्धसम्मत्ते । णिगंथे जिणमग्गे संखेवेणं जहाखादं ॥ १६७॥ इस प्रकार बाह्य तथा आभ्यन्तर परिग्रहों को व्यर्थ मानने वाले और विशुद्ध सम्यक्त्व को शिरोधार्य करने वाले जिन मार्ग में प्रव्रज्या के केन्द्र मुनियों के गुणों का संक्षेप में प्रतिपादन किया गया।
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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