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________________ उवसमखमदमजुत्ता सरीरसक्कारवजिया रूक्खा । मयरायदोसरहिया पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥ १६०॥ कर्मक्षय, क्षमा और इन्द्रियनिग्रह से युक्त होना, शृंगारविहीन देह का रूखा होना और मद तथा राग आदि दोषों से रहित होना प्रव्रज्या के लक्षण हैं। विवरीयमूढभावा पणट्ठकम्मट्ठ णट्ठमिच्छत्ता । सम्मत्तगुणविसुद्धा पव्वजा एरिसा भणिया ॥१६१॥ प्रव्रज्या में अज्ञान भाव नहीं रहता, मिथ्यात्व एवं आठ प्रकार के कर्म नष्ट रहते हैं और सम्यग्दर्शन के कारण भाव विशुद्धि बनी रहती है। जिणमग्गे पव्वजा छहसंहणणेसु भणिय णिगंथा । भावंति भव्वपुरिसा कम्मक्खयकारणे भणिया ॥१६२॥ जिनमार्ग में छह प्रकार के संहननवाले जीवों में प्रव्रज्या सम्भव है। प्रव्रज्या तमाम परिग्रहों से रहित होती है। इसलिए भव्यजनों को चाहिए कि वे कर्मक्षय के लिए प्रव्रज्या का भावन करें। तिलतुसमत्तणिमित्त समबाहिरग्गंदसंगहो णत्थि। पव्वज हवइ एसा जह भणिया सव्वदरिसीहिं ॥ १६३ ॥ प्रव्रज्या में तिल के तुष बराबर भी बाह्य परिग्रह नहीं होता। सर्वज्ञदेव जिनेन्द्र भगवान् ने प्रव्रज्या को इसी रूप में प्रतिपादित किया है।
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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