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________________ रुवत्थं सुद्धत्थं जिणमग्गे जिणवरेहिं जह भणियं । भव्वजणबोहणत्थं छक्कायहियंकरं उत्तं ॥ १६८॥ आभ्यन्तर में शुद्ध भावों से भरे हुए मोक्षमार्ग के बाह्य स्वरूप को जिनेन्द्र भगवान् ने जैसा कहा है, वैसा ही मैंने उसका विवेचन किया ताकि भव्य जीवों का उद्बोधन हो और षट्काय जीवों का हित हो सके। सद्दवियारो हूओ भासासुत्तेसु जं जिणे कहियं । सो तह कहियं णायं सीसेण य भद्दबाहुस्स ॥१६६ ॥ शब्द के रूप परिवर्तन से उत्पन्न भाषा सूत्रों में जिनेन्द्र भगवान् ने जो कुछ कहा है उसे भद्रबाहु ने वैसा ही ग्रहण किया और फिर उनके शिष्य (विशाखाचार्य) ने उसे उसी रूप में कहा। बारसअंगवियाणं चदुद्दसपुव्वंगंविउलवित्थरणं । सुदणाणि भद्दबाहू गमयगुरू भगवओ जयदु। १७० ॥ अन्तिम श्रुत केवली भ्रदबाहु द्वादश अंगों और चौदह पूर्वांगों के विपुल विस्तार के ज्ञाता हैं। वे सूत्रों का यथावत् अर्थ करते हैं | अथवा मेरे परम्परागत/प्रेरक गुरु हैं। उन पूज्य भगवान् भद्रबाहु को मैं कुन्दकुन्द नमन करता हूँ। उनकी जय हो। 49
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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