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________________ [ ५६] चिन्तनीयः सदा योगी कीडशो वद भो गुरो ! प्रश्न:- हे गुरो ! कृपाकर कहिये कि कैसे योगीका सदा चिंतन करते रहना चाहिए ? स्वयं भवाब्धेस्तरति प्रयत्नात् , यः कोऽपि भव्यान्निजपृष्ठलग्नान् । कृत्वा दयां तारयति स्वाभावात् , स एव योगी हृदि धारणीयः ॥१०॥ उत्तरः-जो कोई जोगी प्रयत्नपूर्वक इस संसाररूपी समुद्रसे स्वयं पार हो जाता है और अपने पीछे लगनेवाले भव्य जीवोंको अपने स्वभावसे ही दयाकर पार कर देता है वही योगी अपने हृदयमें सदा धारण करने वा चितवन करने योग्य है ॥ १०१॥ कीदृशः पुरुषो लोके सम्यग्दर्शनसंयुतः ? प्रश्नः-कैसा मनुष्य सम्यग्दर्शनसे सुशोभित वा सम्यग्दृष्टी कहलाता है। तृणे च रत्ने विषकण्टकेऽपि, निंदास्तुतौ मित्ररिपो वनेऽपि । ग्रामे पुरे सुंदरमन्दिरेऽपि, लाभेऽप्यलाभे खलु जन्ममृत्यौ ॥१०२॥
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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