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________________ [ ५७] रम्येऽप्यरम्ये च निजात्मबाह्ये, रोगेऽप्यरोगेऽपि सुखे च दुःखे । एतेषु यस्यास्ति समानभावः, सदृष्टिरेवास्ति स एव लोके ॥१०३॥ उत्तर:-मनुष्य तृणोंमें वा रत्नोंमें, विषमें वा कांटोंमें, निंदा वा स्तुतीमें, शत्रु वा मित्रमें, वन वा गांवमें, नगरमें वा सुन्दर मंदिरोंमें, लाभ वा अलाभमें, जन्म वा मरणमें, रोग वा नीरोगतामें, सुख वा दुःखमें औ आत्मासे भिन्न मनोहर वा घृणित पदार्थोंमें अर्थात् इष्ट वा अनिष्ट समस्त पदार्थों में जो समान भाव धारण करता है, सबको समान देखता है उसीको इस संसारमें सम्यग्दृष्टी समझना चाहिये ॥ १०२ ॥ १०३॥ अल्पायुरपि को वृद्धो हे देव वद साम्प्रतम् ? प्रश्न:-हे देव ! अब यह बतलाइये कि अल्पायुमें भी वृद्ध कौन कहलाता है ? अत्यंतभीमे सकलेप्सिते वै, स्थितोऽपि तारुण्यवने ह्यलिप्तः। लीनोऽस्ति चानंदरसे सदा यो, दिनैरवृद्धोऽपि स एव वृद्धः ॥१०४॥
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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