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प्रश्न - हे गुरो ! इस संसार में कैसा वेष, कैसे व्रत और कैसा - विद्वान् वास्तव में शोभा नहीं देता ?
वैराग्यबोधै रहितो हि वेषो, लोके व्रतं वा दयया विहीनम् । न भाति शास्त्री स्वविचारशून्यः, सन्तोषशीलेन विना न विद्वान् ॥ ६७ ॥
उत्तरः- जो साधुका भेष वैराग्य और सम्यग्ज्ञानसे रहित हैं, वह कभी शोभा नहीं देता । जो व्रत दयारहित हैं, वे भी कभी शांभा नहीं देते। जो शास्त्री आत्मविचारसे रहित है वह भी कभी शोभा नहीं देता तथा जो विद्वान संतोष और शील धारण नहीं करता वह भी कभी शोभा नहीं देता ॥ ६७ ॥
स्वात्मतुष्टेविरक्तेश्व का सम्पत् प्राप्यते गुरो ?
प्रश्न - हे गुरो ! जो जीव विषयभोगों से विरक्त हैं और अपने आत्मामें संतुर हैं उनको कौन कौनसी संपत्तियां प्राप्त होती हैं यः कोपि जीवो विषयाद्विरक्तः, सदैव दक्षः स्वपरोपकार्ये । लीनोऽस्ति चानन्दरसे सुमिष्टे, स्वात्मप्रदेशेऽविचले विशुद्धे ॥ ६८ ॥