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________________ [ ३७] तस्यास्ति साम्राज्यनिधिः समीपः, पत्नीव च स्यान्निजराज्यलक्ष्मीः । भवन्ति शीघ्रं रिपवः सखायो, लोके परेषां हि कथैव कास्ति ॥६९॥ उत्तरः-जो जीव विषयोंसे विरक्त हैं, अपने आत्माका कल्याण करने और अन्य जीवोंका कल्याण करनेमें निपुण हैं और जो अत्यंत मिष्ट ऐसे आनन्दामृतरसमें लीन हैं अथवा अत्यंत विशुद्ध और निश्चल अपने आत्मप्रदेशोंमें लीन हैं उनके लिये साम्राज्यनिधि समीप ही समझनी चाहिये, तथा शुद्ध आत्मस्वरूप राज्यलक्ष्मी उसकी पत्नीके समान साथ रहती है और उसके समस्त शत्रु भी शीघ्र ही मित्र हो जाते हैं। फिर भला इस संसारमें औरोंकी तो बात ही क्या है ॥६८ ॥ ६९ ॥ परलोके किमायाति सार्द्ध जीवेन किं न वा ॥ प्रश्न:--हे गुरो ! इस जीवके साथ परलोकमें क्या जाता है और क्या नहीं जाता ? कुटुम्बिनः प्रेतवनस्य चान्तं, देहोऽपि भस्मीभवति स्वभावात् ।
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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