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________________ [३५] करता है, और न माता, पिता, गुरु, भाई आदि किसीको देता है उस मनुष्यको हम तो उस धनका रक्षक ही समझते हैं। अंत में उस धनको चोर हरणकर लेजाते हैं, राजा हरणकर लेता है, अग्नि जला देती है अथवा जहां गड़ा रहता है वहीं नष्ट होजाता है । यही समझकर चतुर पुरुषोंको अपना धन दानमें दे डालना चाहिये अथवा खाने पीनेमें खर्च कर देना चाहिये || ६४ || ६५ ॥ प्रयासः स्वात्मतृप्तस्य सार्थकोऽन्यो भवेन्न वा ? प्रश्नः - हे देव ! जो मनुष्य अपने आत्मतत्त्वमें तृप्त हो रहा है उसके अन्य प्रयास सार्थक होते हैं या नहीं ? यः कोऽपि जीवः स्वरसेन तृप्तो, निजात्मनिष्ठो जिनधर्मतुष्टो । सत्यार्थजुष्टः परमार्थ पुष्टो, वृथैव तस्यास्त्यपरः प्रयासः ॥ ६६ ॥ उत्तर:- हे वत्स ! सुन, जो जीव अपने आत्मरससे अत्यंत तृप्त हो रहा है, जो अपने आत्मामें लीन हो रहा है, जिनधर्मसे संतुष्ट हो रहा है, सत्यार्थ भाषण करता है और जो परमार्थसे पुष्ट है ऐसे जीवके अन्य सब प्रयासं व्यर्थ समझने चाहिये ॥ ६६ ॥ कीदृग्वेषो व्रतं विद्वान् भाति लोके न तत्त्वतः ?
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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