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________________ [ ९५] जीवादितत्त्वस्य यथास्थितस्य, द्रव्यादिकस्यापि यथार्थबोधः ॥१७२॥ त्यक्त्वाऽशुभं दुःखमयं कदर्य, प्रवर्तनं पुण्यमये शुभे च। सदैव शुद्धे स्वपदे स्थिरत्वं, चारित्रमेवास्ति तदेव सम्यक् ॥१७३॥ किंवा सुदक स्वात्मरुचिर्यथार्थ, सुज्ञानमेवास्ति निजात्मबोधः। शुद्धेऽमले स्वात्मनि वा स्थिरत्वं, चारित्रमेवास्ति तदेव लोके ॥१७४॥ उत्तर:-देव, शास्त्र, गुरु और अपने जिनधर्मका यथार्थ श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है । यथार्थ स्वरूपको धारण करनेवाले जीवादिकके तत्त्वांका अथवा द्रव्योंका यथार्थ ज्ञान होना सम्यग्ज्ञान है। इसी प्रकार अशुभ वा यापमय तथा दुःखमय और लोभरूप अपनी प्रवृतिका त्याग कर पुण्यमय शुभ कार्योमें अपनी प्रवृत्ति रखना अथवा अपने शुद्ध आत्मामें स्थिर हो जाना ही सम्यक् चारित्र कहलाता है । अथवा अपने शुद्ध आत्माकी यथार्थ रुचि होना निश्चय सम्यग्दर्शन है, अपने शुद्ध आत्माका
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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