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________________ [ ९४ ] प्रश्नः - हे प्रभो ! सम्यग्दृष्टी और उसके विपरीत मिथ्या प्रवृत्ति कैसी होती है ? मिथ्यात्वमूढस्य परात्मबुद्धि, मिथ्याप्रपंचो विपरीतवृत्तिः । भवेत्सुदृष्टश्च निजात्मबुद्धिः, सम्यक्प्रवृत्तिः स्वपदे निवासः ॥ १७१ ॥ उत्तरः -- जो पुरुष मिथ्यात्व से अज्ञानी हो रहा है उसकी बुद्धि सदा परपदार्थोंमें लीन रहती है, उसका प्रपंच वा भावनाएं सब मिथ्या होती हैं और उसकी प्रवृत्ति भी सदा विपरीत रहती है । इसी प्रकार सम्यग्दृष्टीकी बुद्धि अपने आत्मामें लीन रहती है, उसकी प्रवृत्ति यथार्थ रहती है और उसके आत्माका निवास अपने आत्मामें रहता है ।। १७१ ।। दर्शनज्ञानचारित्रलक्ष्म किं ब्रूहि मे गुरो ! प्रश्नः - हे गुरो ! अब मेरे लिए यह बतलाइये कि सम्यदर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रका लक्षण क्या है ? देवस्य शास्त्रस्य गुरोर्यथाव, च्छ्रद्धा स्वधर्मस्य सुदर्शनं तत् ।
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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