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________________ ( ३८४ ) आ प्रमाणे आभ्यन्तरप्रतिष्ठा संबंधीनो विचार आपणे अहीं कर्यो, कारण के प्रतिष्ठाकर्ताने आभ्यन्तरप्रतिष्ठानुं तत्त्व पाम्या वगर बाह्यप्रतिष्ठा करवाने अनधिकारी गण्यो छे, एटले प्रथम प्रतिष्ठाकर्ता स्वात्मामां परमात्मप्रतिष्ठा कर्या पछी ज बाह्यप्रतिष्ठा करी शके, अने ते ज बाह्यप्रतिष्ठा अन्यने पूजाफलदात्री बने, अतएव अहीं हवे बाह्यप्रतिष्ठानो विचार करवो अत्यावश्यक गणाय. " बाह्यप्रतिष्ठानी उपयोगिता” बाह्य प्रतिष्ठानो मुख्य अर्थ एटलोज के-पूर्वोक्त प्रकारे विधिशुद्ध अने उत्तम कारीगरनिर्मित जिनबिंबमां परमात्मभावनो आरोप करवो अर्थात् परमात्मानी तेमां स्थापना करवी. अत्रे पाठके पहेला शंका करेल हती के-मूर्ति पाषाणनी अने परमात्मा क्षीणकर्मा ज्योतिस्वरूप सिद्धस्थानस्थित एटले मंत्रादिविशिष्ट संस्कारद्वारा तेनो आरोप मूर्तिमां कोई प्रकारे थइ शके नहीं, तथा थाय तो सिद्धपणुं न घटे. अहीं आ शंकानुं निरसन आ प्रमाणे जाणवू. प्रथम तो शास्त्रमा जेवा अवयवो, आकार, प्रमाण तथा जिनमूर्त्तिनुं वर्णन कर्यु छे तेवा ज आकारमय जिनमूर्ति निर्माण करवी, एटले जेना दर्शनमात्रथी दृष्टाना हृदयमां एकाएक आ जिनमूर्ति छ अने जिनेश्वरना शरीरतुल्य आकारवान् आ प्रतिमा छे एवो सचोट भास थाय. त्यारबाद आ
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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