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________________ ( ३८३ ) प्रकरणमा परमात्मभावनो अनुभव क्यो आत्मा केवी स्थितिए करी शके तेनो उल्लेख आ प्रमाणे करे छे जीतेंद्रिय, धीर, प्रशान्त, निश्चलवृत्ति, दृढासनस्थित, नासिकाना अग्रभागे स्वदृष्टिने टेकावनार एवो योगी तथा ध्यानना धारावेगथी पौगलिक भावमांथी मननो रोध करनार, प्रसन्न, अप्रमादी पुरुष चिदानंद संबंधी अमृतरसनो अपूर्व स्वाद करे छे. आ सर्व कथनन कथितार्थ एटलो ज के प्रतिष्ठा करनार संसारस्थ पुरुष छतां परमात्म संबंधी एक अथवा अनेक गुणोनुं स्मरण, चिंत्वन अने ध्यानद्वारा तन्मय थवाथी नितान्ततया स्वात्मामां परमात्माना प्रतिबिंबने अवतारी शके ए निःसंशय छे, अरे ! युक्ति अने प्रमाणथी अखंडित छे. आ भावार्थ " वचननीत्योच्चैः " ए पद साथे ग्रंथकारे आपेल “उच्चैः पद परथी प्राप्त थाय छे, एम उपाध्यायजी कहे छे. ܕܕ १ ध्याता ध्येयं तथा ध्यानं त्र्यं यस्यैकतां गतम् । मुनेरनन्यचित्तस्य तस्य दुःखं न विद्यते ॥ १ ॥ ध्यातान्तरात्मा ध्येयस्तु परमात्मा प्रकीर्त्तितः । ध्यानं चैकाग्रसंवित्तिः समापत्तिस्तदेकता ॥ २ ॥ मणौ बिम्बप्रतिच्छाया समापत्तिः परात्मनः । क्षीणवृत्तौ भवेद् ध्यानादन्तरात्मनि निर्मले || ३ || जितेंन्द्रियस्य धीरस्य प्रशान्तस्य स्थिरात्मनः । सुखासनस्य नासाग्रन्यस्तनेत्रस्य योगिनः ।। ६ ।। रूद्धबाह्यमनोवृत्तेर्धारणा धारयारयात् । प्रसनस्याप्रमत्तस्य चिदानन्दसुधालिहः ||७|| ज्ञानसार, अष्टक ३०॥
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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