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________________ ( ३८५) जिनमूर्तिमा पूर्वे दर्शावेल गुणवान् प्रतिष्ठा करतां स्वात्मामां प्रतिभासमान् परमात्मानो उपचारथी आरोप करे, अर्थात् पोतानो परमात्म संबंधी उंच आशय तेमां स्थापे, हृदयस्थ परमात्म मूर्ति अने बाह्य पाषाणस्थ जिनआकारनी तुल्यता करी विचार करे, भावना करे के-आवा आसन पर विराजित परमात्माए सिद्धस्थान प्राप्त कर्यु, मूर्तिमां जे शान्तिरस, निर्विकारदृष्टि, अपूर्व सौम्यता, अद्भुत वैराग्य, अपूर्व त्याग, आश्चर्यकारी ध्यान, चमत्कारी तेज, दिव्य प्रसन्नता, अलौकिक योग आदि भावोनी छांया दृष्टिगत थाय छे, तेनाथी अनंतगुणविशिष्ट ज्योतिस्वरूप परमात्मामां ते ते भावोनो योगीओ साक्षात्कार करे छे आ मूर्ति तो मात्र ते ते गुणोनुं ध्यान करवानुं पगथीयु, केवल एक बाह्य साधन छे. प्रतिष्ठाकर्ता ज्यारे मंत्रादि संस्कारोथी आ भावनो ते मूर्तिमां उपचार करे छे, एटले अन्य धर्मी मनुष्यने आ मूर्ति ध्याननुं साधन, गुणभावना करवानुं स्थान, जिनत्वपणानो ख्याल करावनार अने विविध पूजानुं फल आपनार बने छे, कारण के प्रामाणिक गुणवान् अने विशिष्ट धर्मीजन ज्यारे पोतानो अपूर्व सद्भाव तेमां स्थापन करे त्यारे अन्य सामान्य जनो पूजा विगेरे कार्योमा अवश्य प्रवृत्ति करे छे. छेवटे परिणामे ते ते लोको पूजानुं अद्भुत फल प्राप्त करे छे. आ रीते प्रतिष्ठाकर्ता स्वात्मगत परमात्मभावनो बाह्य
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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