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________________ (२९९ ) आत्मा प्राप्त करे त्यारबाद ज जिनमंदिर पोते स्व भने परना कल्याण माटे बंधावी शके अन्यथा जिनमंदिर बंधाववा पूरतु ज कार्य कयु कहेवाय. धनवान ज जिनमंदिर बंधावी शके ए वात खरी अने धन विना मंदिर विगेरे एक पण कार्य थइ शके नहीं ए तो जाणीतुं छे, पण जिनमंदिर जेवा पवित्र कार्यों क्या धनथी थाय तो स्वपरने आयंदे कल्याणकारी थाय एनो खुलासो शास्त्रकर्ता प्रथम ज करे छे.-'न्यायार्जितवित्तेशो' जेणे स्वजींदगीमां पोताना कुलपरंपरागत व्यवहारथी छळकपट, विश्वासघात, चोरी अने बीजा निंदनीय व्यापारो विना धन पेदा कयु होय ते ज न्यायप्राप्त धन कहेवाय. आq धन जेना पासे होय ते ज मनुष्य वीतराग देवर्नु मंदिर बंधाची शके अने पूजा तथा महादानना फलने पामवाने योग्य गणाय, कारण के न्यायप्राप्त धनथी करेलुं अल्प पण पुण्यकार्य पुण्यानुबंधी पुण्यनुं कारण थाय एम महर्षिो कहे छे. आम छतां पण जो हित अने अहितनो विभाग करवानी अक्कल न होय अर्थात् कल्याणकारी शुं छे एटलो पण जेने विवेक न होय तो ते न्यायप्राप्त धननो सदुपयोग क्यांथी करी शके १ एटले ज-'मतिमान्' आ धननो हुँ क्यां व्यय करूं तो भविष्यमां मारं एकान्त कल्याण थाय एवी जेनी सन्मति होय, तेमां पण कार्य करवा पहेला सन्मति उपजे अने कार्य शरु कर्या पछी अगर कार्य बनी गया पछी आ में शुं कयु ? मारुं धन बधुं खर्चाई जशे ? हवे हुँ शु करीश ? एवी एवी अनेक धार
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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