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________________ (३००) णामो-विचारो न आवे माटे कहे छ के-'स्फीताशयः' कार्यनी शरुआतथी मांडी कार्य थइ रहे त्यांसुधी अने आगल उपर पण जेना परिणामो मंदिर आदि धार्मिक कार्योमा अनुक्रमे चडता ज रहे; तथा 'सदाचारः' सदाचारी-उत्तम आचारवान् होय ते. सदाचारनुं स्वरूप योगबिन्दु प्रकरणमां आ प्रमाणे कर्तुं छे-" लोकापवादभीरुत्वं, दीनाभ्युद्धरणादरः । कृतज्ञता सुदाक्षिण्यं, सदाचारः प्रकी. र्तितः ॥१॥ सर्वत्र निन्दासंत्यागो, वर्णवादश्च साधुषु । आपद्यदैन्यमत्यन्तं, तद्वत्संपदि नम्रता ॥२॥ प्रस्तावे मितभाषित्व-मविसंवादनं तथा । प्रतिपन्नक्रिया चेति, कुलधर्मानुपालनम् ॥ ३॥ असद्वययपरित्यागः, स्थाने चैतक्रिया सदा । प्रधान कार्ये निर्बन्धः, प्रमादस्य विवर्जनम् ॥ ४ ॥ लोकाचारानुवृत्तिश्च, सर्वत्रौचित्यपालनम् । प्रवृत्तिर्गर्हितेनेति, प्राणैः कंठगतैरपि ॥५॥ दुनीया तरफना अपवादथी नित्य भीरु, दीन-अनाथनो उद्धार करवामां प्रेम, आपणा पर करेल अन्य जनोनो उपकार जाणवो-मानवो, उत्तम दाक्षिण्यता-या सर्व सदाचारो कह्या छे तथा सर्वत्र अने सर्वनी निंदानो त्याग, उत्तम साधुजनोनी प्रशंसा, कष्ट वखते अतिशय अदीनता अने संपत्ति अवस्थामां नम्र परिणाम, सुअवसरे अल्प भाषण, कोइनी पण साथे विवाद-क्लेशमां नहीं उतरवू, स्वीकृत कार्यनुं आखिरतक पालन, तेमज कुलधर्मनी बराबर सेवा, खोटा खर्चा बंध करवा-नहीं करवा, देवपूजा,
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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