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________________ (३९८) गुर्वादिमतो जिनभवन कारणस्याधिकारीति ॥ ६-२॥ मूलार्थ-न्यायोपार्जित धनवान् , बुद्धिमान् , पवित्र प्राशयवान् अने सदाचारी तेमज मातापिता तेमज वडिलो, राजा अमात्य आदिने मान्य एवा आत्माने वीतरागदेवतुं मंदिर कराववा शास्त्रकारोए अधिकारी मान्यो छे. " स्पष्टीकरण" धनवान् अने गमे तेवी लायकात वगरनो आत्मा ममत्व. इर्ष्या अथवा मानप्रिय बनी जिनमंदिर करावे छे, तो भविप्यमां तेने अगर तेना कुटुंबने, श्रीसंघने ते मंदिर पर एटली दरकार होती नथी. आयंदे ते मंदिर भारभूत आशातनामय अने एक कर्मबंधन ज कारणभूत बने छे, तथा बनावनार पवित्र हेतुथी अथवा पवित्र आशयथी अने न्यायथी कराव. नार न होवाथी ते मंदिर अन्यने कल्याणभूत कदापि बनतुं नथी. अन्याय तथा दुष्टबुद्धिथी करेलुं एक गृहस्थ जीवनसामान्य कार्य पण ज्यारे आत्माने शांतपणे बेसवा देतुं नथी तो आईं जिनमंदिर पण उन्नतिमां क्याथी हेतुभूत थाय ? अतएव जिनमंदिर करावनारे केवल धनपतिपणानो ज मोह न धरता आ श्लोकमां दर्शित योग्यता मेळववा तरफ लक्ष्य राखवू, एम ग्रंथकर्ता प्रतिपादक रीतिथी गर्मित उपदेश करे छे. एटले के आ श्लोकमां जिनमंदिर करावधानी योग्यतावाला माटे जे पांच विशेषणो पाप्या छे ते पूरेपूरी रीतथी
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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