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(श्रावक धर्म विधि प्रकरण)
भी सम्यक्त्व में अनुमोदन मानना होगा, जिसे जैन परम्परा स्वयं स्वीकार नहीं करती है। अन्त में आचार्य हरिभद्र कहते हैं कि सम्यक्त्व के साधक श्रावक को मिथ्यात्व से विरत होकर गुरु के समीप जाकर वीतराग अरहन्त परमात्मा मेरे देव अर्थात् आराध्य हैं, अहिंसा आदि पाँच महाव्रतों का परिपालन करने वाले साधु ही मेरे गुरु हैं और अहिंसा ही धर्म है-ऐसी प्रतिपत्ति स्वीकार करनी चाहिए। सम्यक्त्व की चर्चा के प्रसंग में आचार्य हरिभद्र ने आठ दर्शनाचारों का उल्लेख भी किया है।
प्रस्तुत कृति में आचार्य ने न केवल आठ दर्शनाचारों का उल्लेख किया है, अपितु उनकी विस्तृत विवेचना भी की है और इस प्रसंग में उन्होंने जैनधर्मदर्शन के अनेक महत्वपूर्ण प्रसंगों को उठाया भी है। निश्शंकितत्व की चर्चा करते हुए पूर्व पक्ष के रूप में ये प्रश्न उठाते हैं कि जीवों के उपयोग लक्षण समान हैं फिर भी एक को भव्य और दूसरे को अभव्य कैसे माना जा सकता है? अथवा एक परमाणु-पूरित प्रदेश (क्षेत्र) में दूसरे परमाणु अवगाहन कैसे कर सकते हैं और उसी प्रदेश में सर्वव्यापी होकर कैसे रहते हैं? क्योंकि परमाणु से सूक्ष्म तो कुछ होता ही नहीं है और प्रत्येक परमाणु एक आकाश प्रदेश का अवगाहन करके रहता है अत: एक ही आकाश प्रदेश में अनेक परमाणु सर्वव्यापी कैसे रह सकते हैं?हरिभद्र की दृष्टि में एक देश विषयक अर्थात्
आंशिक शंकाए हैं। इसी क्रम में गणिपिटक (जैन आगम) सामान्य पुरुषों के द्वारा रचित है अथवा असर्वज्ञ के द्वारा रचित है? ऐसी शंका करना सर्व विषयक सर्वांश शंका है क्योंकि इससे सम्यक्त्व का आधार ही समाप्त हो जाता है। इसी प्रकार निराकांक्षा की चर्चा करते हुए बताया गया है कि कर्मों का फल मिलेगा या न मिलेगा, इस प्रकार का विचार करना आकांक्षा है। इसी प्रसंग में आचार्य ने यह भी कहा है, स्वधर्म का त्याग कर दूसरे धर्म दर्शनों की इच्छा करना भी आकांक्षा का ही रूप है। किसी अन्य धर्म की आकांक्षा करना एक देश अर्थात् आंशिक आकांक्षा है। इससे भिन्न सभी मतों की आकांक्षा करना या यह मानना कि वे सभी धर्म या दर्शन मोक्ष की ओर ही ले जाते हैं, सर्व विषयक आकांक्षा है। यहाँ आचार्य ने शंका के प्रसंग में पेयगाई और आकांक्षा के प्रसंग में 'राजा और आमात्य' की कथा का निर्देश दिया है। यद्यपि प्रस्तुत कृति में हमें कहीं भी ऐसे संकेत उपलब्ध नहीं होते हैं, जिससे यह कथा क्या है, इसका विवेचन कर सकें।
इसी क्रम में निर्विचिकित्सा अंग की चर्चा करते हुए कहा गया है कि वि-चिकित्सा अर्थात् घृणा भी दो प्रकार की मानी गई है, एक देश विषयक
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