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श्रावक धर्म विधि प्रकरण
यतिदिनकृत्य : इस ग्रन्थ में मुख्यतया साधु के दैनिक आचार एवं क्रियाओं का वर्णन किया गया है । षडावश्यक के विभिन्न आवश्यकों को साधु को अपने दैनिक जीवन में पालन करना चाहिए, इसकी विशद विवेचना इस ग्रन्थ में की गयी है।
पञ्चाशक (पंचासग) : आचार्य हरिभद्रसूरि की यह कृति जैन महाराष्ट्री प्राकृत में रचित है। इसमें उन्नीस पञ्चाशक हैं जिसमें दूसरे में ४४ और सत्तरहवें में ५२ तथा शेष में ५०-५० पद्य हैं। वीरगणि के शिष्य श्रीचन्द्रसूरि के शिष्य यशोदेव ने पहले पञ्चाशक पर जैन महाराष्ट्री में वि. सं० १९७२ में एक चूर्णि लिखी थी, जिसमें प्रारम्भ में तीन पद्य और अन्त में प्रशस्ति के चार पद्य हैं, शेष ग्रन्थ गद्य में है। इसमें सम्यक्त्व के प्रकार, उसके यतना, अभियोग और दृष्टान्त के साथ-साथ मनुष्य भव की दुर्लभता आदि अन्यान्य विषयों का निरूपण किया गया है। सामाचारी विषय का अनेक बार उल्लेख हुआ है। मण्डनात्मक शैली में रचित होने के कारण इसमें 'तुलादण्ड न्याय' का उल्लेख भी है। आवश्यक चूर्णि के देशविरति में जिस तरह नवपयपयरण में नौ द्वारों का प्रतिपादन है, उसी प्रकार यहाँ पर भी नौ द्वारों का उल्लेख है।
पंचाशकों में जैन आचार और विधि-विधान के सम्बन्ध में अनेक गम्भीर प्रश्नों को उपस्थित करके उनके समाधान प्रस्तुत किये गये हैं। निम्न उन्नीस पञ्चाशक उपलब्ध होते हैं -
१. श्रावकधर्मविधि, २. जिनदीक्षाविधि, ३. चैत्यवन्दनविधि, ४ . पूजाविधि, ५. प्रत्याख्यानविधि, ६. स्तवनविधि, ७. जिनभवननिर्माणविधि, ८. जिनबिम्बप्रतिष्ठाविधि, ९. यात्राविधि, १०. उपासकप्रतिमाविधि, ११. साधुधर्मविधि, १२. साधुसामाचारी विधि, १३. पिण्डविधानविधि, १४. शीलाङ्गविधानविधि, १५. आलोचनाविधि, १६. प्रायश्चित्तविधि, १७. कल्पविधि, १८. भिक्षुप्रतिमाकल्पविधि, १९. तपविधि ।
उपरोक्त पञ्चाशक अपने-अपने विषय को गम्भीरता से किन्तु संक्षेप में प्रस्तुत करते हैं। इन सभी पञ्चाशकों का मूल प्रतिपाद्य श्रावक एवं मुनि आचार से सम्बन्धित है और यह स्पष्ट करते हैं कि जैन परम्परा में श्रावक और मुनि के लिए करणीय विधि-विधानों का स्वरूप उस युग में कैसा था।
इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य हरिभद्र बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी एक विशिष्ट प्रतिभासम्पन्न आचार्य रहे हैं। उनके द्वारा की गई साहित्य सेवा न केवल जैन साहित्य अपितु सम्पूर्ण भारतीय वाङ्मय में अपना विशिष्ट
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