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(श्रावक धर्म विधि प्रकरण )
फिर वह भी उसके अपने धर्म-सम्प्रदाय में हो या उसके प्रतिपक्षी में, वह साहसपूर्वक उसे नकारता है। हरिभद्र के व्यक्तित्व का यही सत्याग्रही स्वरूप उनकी उदारता और क्रान्तिकारिता का उत्स है। पूर्व में मैंने हरिभद्र के उदार
और समन्वयशील पक्ष की विशेष रूप से चर्चा की थी, अब मैं उनकी क्रान्तिधर्मिता की चर्चा करना चाहूँगा। क्रान्तदर्शी हरिभद्र
हरिभद्र के धर्म-दर्शन के क्रान्तिकारी तत्त्व वैसे तो उनके सभी ग्रन्थों मैं कहीं न कहीं दिखाई देते हैं, फिर भी शास्त्रवार्तासमुच्चय, धूर्ताख्यान और सम्बोधप्रकरण में वे विशेष रूप से परिलक्षित होते हैं। जहाँ शास्त्रवार्तासमुच्चय
और धूर्ताख्यान में वे दूसरों की कमियों को उजागर करते हैं वहीं सम्बोधप्रकरण में अपने पक्ष की समीक्षा करते हुए उसकी कमियों का भी निर्भीक रूप से चित्रण करते हैं।
हरिभद्र अपने युग के धर्म-सम्प्रदायों में उपस्थित अन्तर और बाह्य के द्वैत को उजागर करते हुए कहते हैं, "लोग धर्म-मार्ग की बातें करते हैं, किन्तु सभी तो उस धर्म-मार्ग से रहित हैं।' २७ मात्र बाहरी क्रियाकाण्ड धर्म नहीं है। धर्म तो वहाँ होता है जहाँ परमात्म-तत्त्व की गवेषणा हो। दूसरे शब्दों में, जहाँ
आत्मानुभूति हो, 'स्व' को जानने और पाने का प्रयास हो। जहाँ परमात्म.तत्त्व को जानने और पाने का प्रयास नहीं है वहाँ धर्म-मर्ग नहीं है। वे कहते हैं - जिसमें परमात्म-तत्त्व की मार्गणा है, परमात्मा की.खोज और प्राप्ति है, वही धर्म-मार्ग मुख्य मार्ग है।२८ आगे वे पुन: धर्म के मर्म को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं - जहाँ विषय-वासनाओं का त्याग हो; क्रोध, मान, माया और लोभरूपी कषायों से निवृत्ति हो; वही तो धर्म-मार्ग है। जिस धर्म-मार्ग या साधना-पथ में इसका अभाव है वह तो (हरिभद्र की दृष्टि में) नाम का धर्म है।२९ वस्तुतः धर्म के नाम पर जो कुछ हुआ है और हो रहा है उसके सम्बन्ध में हरिभद्र की यह पीड़ा मर्मान्तक है। जहाँ विषय-वासनाओं का पोषण होता हो, जहाँ घृणाद्वेष और अहंकार के तत्त्व अपनी मुट्ठी में धर्म को दबोचे हुए हों, उसे धर्म कहना धर्म की विडम्बना है। हरिभद्र की दृष्टि में वह धर्म नहीं अपितु धर्म के नाम पर धर्म का आवरण डाले हुए कुछ अन्य अर्थात् अधर्म ही है। विषय-वासनाओं
और कषायों अर्थात् क्रोधादि दुष्प्रवृत्तियों के त्याग के अतिरिक्त धर्म का अन्य कोई रूप हो ही नहीं सकता है। उन सभी लोगों की, जो धर्म के नाम पर अपनी वासनाओं और अहंकार के पोषण का प्रयत्न करते हैं और मोक्ष को अपने अधिकार की वस्तु मानकर यह कहते हैं कि मोक्ष केवल हमारे धर्म-मार्ग का