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(श्रावक धर्म विधि प्रकरण )
तथा परम कारुणिक माना गया है, किन्तु हमारी दृष्टि उस परमतत्त्व के मूलभूत स्वरूप पर न होकर नामों पर टिकी होती है और इसी के आधार पर हम विवाद करते हैं। जब कि यह नामों का भेद अपने आप में कोई अर्थ नहीं रखता है। योगदृष्टिसमुच्चय में वे लिखते हैं कि -
सदाशिवः परं ब्रह्म सिद्धात्मा च तथागतः । शब्दैस्तद् उच्यतेऽन्वर्थाद् एक एवैवमादिभिः ॥
अर्थात् सदाशिव, परब्रह्म, सिद्धात्मा, तथागत आदि नामों में केवल शब्द भेद हैं, उनका अर्थ तो एक ही है। वस्तुत: यह नामों का विवाद तभी तक रहता है जब तक हम उस आध्यात्मिक सत्ता की अनुभूति नहीं कर पाते हैं। व्यक्ति जब वीतराग, वीततृष्णा या अनासक्ति की भूमिका का स्पर्श करता है तब उसके सामने नामों का यह विवाद निरर्थक हो जाता है। वस्तुत: आराध्य के नामों की भिन्नता भाषागत भिन्नता है, स्वरूपगत भिन्नता नहीं। जो इन नामों के विवादों में उलझता है, वह अनुभूति से वंचित हो जाता है। वे कहते हैं कि जो उस परमतत्त्व की अनुभूति कर लेता है उसके लिये यह शब्दगत समस्त विवाद निरर्थक हो जाते हैं।
__ इस प्रकार हम देखते हैं कि उदारचेता, समन्वयशील और सत्यनिष्ठ आचार्यों में हरिभद्र के समतुल्य किसी अन्य आचार्य को खोज पाना कठिन है। अपनी इन विशेषताओं के कारण भारतीय दार्शनिकों के इतिहास में वे अद्वितीय और अनुपम हैं। क्रान्तदर्शी समालोचक : जैन परम्परा के सम्दर्भ में
हरिभद्र के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में यह उक्ति अधिक सार्थक है- 'कुसुमों से अधिक कोमल और वज्र से अधिक कठोर।' उनके चिन्तन में एक ओर उदारता है, समन्वयशीलता है, अपने प्रतिपक्षी के सत्य को समझने और स्वीकार करने का विनम्र प्रयास है तो दूसरी ओर असत्य और अनाचार के प्रति तीव्र आक्रोश भी है। दुराग्रह और दुराचार फिर चाहे वह अपने धर्मसम्प्रदाय में हो या अपने विरोधी के, उनकी समालोचना का विषय बने बिना नहीं रहता है। वे उदार हैं, किन्तु सत्याग्रही भी। वे समन्वयशील हैं, किन्तु समालोचक भी। वस्तुत: एक सत्य-द्रष्टा में ये दोनों तत्त्व स्वाभाविक रूप से ही उपस्थित होते हैं। जब वह सत्य की खोज करता है तो एक ओर सत्य को, चाहे फिर वह उसके अपने धर्म-सम्प्रदाय में हो या उसके प्रतिपक्षी में, वह सदाशयतापूर्वक उसे स्वीकार करता है, किन्तु दूसरी ओर असत्य को, चाहे