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________________ २३ १०८ बोल संग्रह न हुइ तेहनई मते इ अप्रमत्तना योगथी ज द्रव्यहिंसा न हुइ जोइ, जे माटइं पहिलई चउथई भागई करी अप्रमत्तादिक सयोगिकेवली तांइं सरिखा ज गण्या छइं तथा अप्रमत्तनई ज द्रव्यहिंसा कही तेगई करी प्रमत्तसंयतनइं पणि जे द्रव्यूहिंसा कहइ छुई ते सिद्धान्तविरुद्ध इत्यादिक घणु विचारबु।। ७७ ॥ (७८ ) "जावं च णं एस जीवे सया समियं एयई' वेयइ जाव तत भावं परिणमइ तावं च णं एस जीवे आरंभइ सारंभइ समारंभइ" इत्यादिक भगवती मंडियपुत्रना आलावामां "इह जीवग्रहणेऽपि सयोग एवासौ ग्राह्योऽयोगस्येजनादेरसम्भवात्" ए वृत्तिवचन उल्लंघीनइ सयोगि जीव केवलिव्यतिरिक्त लेवो एहवु लिख्यु छइं ते प्रकट हठ जणाई छइं ॥ ७८ ॥ जिहां तांइ एजनादि क्रिया तिहां तांइ आरंभादिक ३ नो नियम न घटइं, ते माटइं आरंभादिक शब्दई योगज कहिइं योग हुई तिहां तांइ अंतक्रिया न हुइ एहवो ए सूत्रनो अभि प्राय एहवुकहई छइं ते अपूर्वज पंडित, जे माटई ए अर्थवृत्ति नथी तथा आरंभादिक अन्यतर नियमनइं अभिप्राय इं सूत्र विरोध पणि नथो ए रीतिनां सूत्र बीजांय दीसइं छइं तथाहि _ 'जाव णं एस जीवे सया समियं एयइ जाव तं तं भावं परिणमइ ताव णं अट्ठविहं बंधए वा सत्तविहं बंधए वा छविहं ब्रधर वा एमविहं बंधए वा तो णं अबंधए' इत्यादिक तथा-आरंभादिकश्शब्दई ३ योगनो अर्थ ए पणि न संभवई इत्यादि विचार ॥ ७२ ।। १. अन्यत्र 'ति' प्रधानपाठः ।
SR No.022149
Book TitlePanchgranthi 108 Bol Sangraha Shraddhanajalpattak Adharsahasshilangrath Kupdrushtantvishadikaran Kaysthitistavan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani, Yashodevsuri
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1980
Total Pages140
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size7 MB
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