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- १०८ बोल संग्रह पणि हुई, एहवु लिख्यु छइं ते कोइ ग्रंथस्यु मिलई नहीं, आश्रवच्छाया कहतां आश्रवज आवइं, ते तो अगहणीय तुम्हारई मतइं भावपाप छइं, तेहनी सत्ता क्षीणमोहनई कहतां घणुज विरुद्ध दीसई ।। ५७ ॥
(५८) मोहनीय कर्मना उदयथी भावाश्रव परिणाम हुई तेहनी सत्ताथी द्रव्याश्रवपरिणाम हुई, एहवु कहइं छइं ते न घटइं, जे माटइं इम कहतां द्रव्यपरिग्रह पणि धर्मोपकरणरूप केवलीनई न जोइंइ ॥ ५८ ॥
एणइंज करी उदित चारित्रमोहनीय असंयतिनइं भावाश्रवकारण प्रमत्तसंयतनइं पणि सत्तावत्ति चारित्रमोहनीय द्रव्याश्रवनुं कारण तेहमां अयतनासहित रागद्वेष ज प्रमाद गणिइं तेहथी प्रमत्तसंयत लगइं द्रव्याश्रव हुइं अनइं अप्रमत्तनइं मोहनीय अनाभोगथी ते हुइ, इत्यादिक कल्पना पणि निषेधी जाणवी।
जे माटइं अप्रमत्तनइं द्रव्यपरिग्रहनइं ठामइं ए युक्ति न मिलई, तथा चारित्रमोहनीय सर्वनइं उदयथी भावाश्रव कहीइं तो ४ गुणठाणादिकई न घटइ केतलाइकनो उदय लीजइं तु ते यतिनई पणि छइं ३ कषायनी उदयसत्ता ते मेलि भावाश्रव द्रव्याश्रवनो परिणाम कहिइं तो तेहनई क्षयइं छद्मस्थनइं पणि द्रव्याश्रव न हुओ जोइइ, तथा प्रमादई भावाश्रव कहिओ छइ इत्यादिक न घटइं ।। ५९॥
__ ( ६० ) 'अयतनया चरन् प्रमादानाभोगाभ्यां प्राणिभूतानि हिनस्ति'' एहवु दशवैकालिक सूत्रनी बृत्तिमां कहिउं छइं ते माटइं