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________________ १०८ बोल संग्रह माटई वर्जनाभिप्राय नथी तथा अनाभोगई जीवघात नथों ए कल्पना खोटी जे माटइं अशुद्धाहारनी परि जीवहिंसाइ पणि केवलीनइ स्वरूपि वर्णनाभिप्राय हुइ तथा अवश्य भावी जीवघात पणि संभवइं जिम यतिनइं नदी उतरतां ।। ५४ ।। वीतराग गर्हणोय पाप हिंसादिक क्रिस्युइ न करइं, एहवु उपदेशपदमां कहिउं छइं, ते माटइं द्रव्यहिंसा केवलीनइ न हुइ, जे माटइं ते लोकदेखीति गर्हणीय छई ए वात कही छइं ते न मिलई जे माटइं प्रतिज्ञाभंगई ज गर्हाइ तंत नथी अ नई अकरण नियममइं उपदेशपद पदनु वचन छइ ते भणि भावहिंसानो अकरणनियम ज केवलीनइं देखा ड्यो छइं ॥ ५५ ।। उपशांतमोहनइं मोहनीय कम छइं ते साटइं गर्हणीय हिंसानो प्रतिसेवा हुई तो पणि मोहनीयना उदय विना उत्सूत्रप्रवृत्ति न हुइ, एहवुलिख्यु छई ते न मिलई, जे माटइंप्रतिसेविनइ उत्सूत्र प्रवृत्तिज हुइ तथा अवश्यभावी द्रव्याहिंसानई दोष न कहिई तो ज ११ गुणठाणइं अप्रतिसेवीपणु तथा सूत्रचारीपणु घटइं ॥ ५६ ॥ ( ५७ ) गर्हणीय पाप मोहनीयमूल ते उपशांतमोहनइं ज हुइ, अनइं अगहणीय पाप अनाभोगमूल आश्रवच्छायारूप क्षीणमोहनइं
SR No.022149
Book TitlePanchgranthi 108 Bol Sangraha Shraddhanajalpattak Adharsahasshilangrath Kupdrushtantvishadikaran Kaysthitistavan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani, Yashodevsuri
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1980
Total Pages140
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size7 MB
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