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________________ (१५५ ) गाथार्थ-जो ईश्वर नी सृष्टि रचना अने संहार नी कथा नी प्रवृत्ति वड़े लोको ने तुष्टि थती होय तो देदिप्यमान प्रभाव प्रतिपादन करवा माटे ईश्वर नी स्तुति कहेवा योग्य छे. विवेचन:- जो तमारे लोको ने ईश्वर नो देदिप्यमान प्रभाव प्रतिपादन करवा द्वारा खुश करवा होय अथवा लोको ने खुशी जोइती होय तो ईश्वर नी सृष्टि सर्जन नी कथा अने ईश्वर नो सृष्टि संहार नी कथा करवा करतां ईश्वर नो कोई देदिप्यमान प्रभाव जेमां होय एवी ईश्वर नी स्तुति करवी जोइये. मूलम् प्रास्तामयंश्रीपरमेष्ठिनामा, तद्धयानवानेषजनोऽभिनिष्यात् । कर्तासुखस्यात्मनिसंविधानात्,संहारकश्चात्मतमोपहारात्। ६५ गाथाथ- तमो परमेष्ठि ने कर्त्ता तरीके कहेवार्नु रहेवा दो. परमेष्ठि नुं ध्यान करवाथी पोतानामां सुख ने करवाथी मनुष्य कर्त्ता छे अने पोताना अज्ञान नो नाश करवाथी ते मनुष्य-संहारक छे. विवेचन :-ईश्वर ने जगत नो कर्त्ता अने संहारक तरीके मानवा नुं रहेवा दो, परन्तु मनुष्य परमेष्ठि नुं ध्यान करवाथी पोताना आत्मा मां सुख ने करे छे. माटे ए दृष्टिए
SR No.022148
Book TitleJain Tattva Sar Sangraha Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherRanjanvijayji Jain Pustakalay
Publication Year1979
Total Pages402
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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