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________________ सर्व क्रियाओं में अप्रमाद प्रतिमा को वन्दन करके भगवान आर्यमहागिरि एड़काक्ष नगर में पधारे । वहां गजाग्रपद पर्वत पर वे समाधि से अनशन करके देवलोक को पहुंचे। इस प्रकार शरद ऋतु के झलकते हुए बादलों के समान आचार्य का चरित्र सुनकर हे साधुजनों! तुम निरंतर संसारसमुद्र को मंथन करने वाली शुभ करनी किया करो । इस प्रकार आर्य महागिरि की कथा पूर्ण हुई । इसी बात को स्पष्टतः कहते हैंसरकमि जो पमायइ असक कज्जे पवित्तिमकुणतो । सकारंभो चरणं विसुद्धमणुपालए एवं ॥ ११८ ॥ मूल का अर्थ-शक्य में प्रमाद न करे और अशक्य कार्य में प्रवृत्ति न करे, इस प्रकार शक्यारंभ होवे, ऐसा पुरुष इस प्रकार विशुद्ध चारित्र को बढ़ाता है। ___टीका का अर्थ - शक्य अर्थात् अपने सामर्थ्य के योग्य समिति, गुप्ति, प्रत्युपेक्षणा, स्वाध्याय तथा अध्ययन आदि में प्रमाद न करे, अर्थात् आलसी न हो और अशक्य अर्थात् जिनकल्प तथा मासक्षपण आदि में प्रवृत्ति न करे अर्थात् उसे अंगीकार न करे । इस प्रकार शक्यारंभ ( शक्य को शुरू करने वाला) होवे सो विशुद्ध, अर्थात् अकलंक चारित्र को काल-संघयण आदि के अनुसार पालता है अर्थात् बढ़ाता है इस प्रकार अर्थात् कथनानुसार । क्यों कि-सम्यक् प्रकार से किया हुआ आरंभ इष्टसिद्धि का हेतु है।
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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